SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 398
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अधिकारः ८] समयसारः। ३८५ इति कर्मबंधनानां प्रदेशस्थितिप्रकृतिमेवमनुभागं । जानन्नपि न मुच्यते मुच्यते स चैव यदि शुद्धः ॥ २९० ॥ आत्मबंधयोर्द्विधाकरणं मोक्षः, बंधस्वरूपज्ञानमात्रं तद्धेतुरित्येके तदसत्, न कर्मषद्धस्य बंधखरूपज्ञानमात्रं मोक्षहेतुरहेतुत्वात् निगडादिबद्धस्य बंधखरूपज्ञानमात्रवत् । एतेन कर्मबंधप्रपंचरचनापरिज्ञानमात्रसंतुष्टा उत्थाप्यते ॥ २८८ ॥ २८९ ॥ २९० ॥ जह बंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावइ विमोक्खं । तह बंधे चिंतंतो जीवोवि ण पावइ विमोक्खं ॥ २९१ ॥ सर्वबंधान् । अनेन व्याख्यानेन ये प्रकृत्यादिबंधपरिज्ञानमात्रेण संतुष्टास्ते प्रतिबोध्यते। कथं ? इति चेत्, बंधपरिज्ञानमात्रेण स्वरूपोपलब्धिरूपवीतरागचारित्ररहितानां स्वर्गादिसुखनिमित्तभूतः पुण्यबंधो भवति न च मोक्ष इति दाष्टांतगाथा गता । एतेन व्याख्यानेन कर्मबंधप्रपंचरचनाविषये चिंतामात्रपरिज्ञानेन संतुष्टा निराक्रियते ॥ २८८ ॥ २८९ ॥ २९० ॥ जह वंधे चिंतंतो बंधणबद्धो ण पावदि विमोक्खं यथा कश्चित्पुरुषो बंधनबद्धो बंधं चिंतयमानो मोक्षं न लभते तह बंधं चिंतंतो जीवोवि ण पावदि विमोक्खं तथा ऐसा अनुमानका प्रयोग है कि, कर्मसे बंध पुरुषके बंधके स्वरूपका ज्ञानमात्र ही मोक्षका कारण नहीं है क्योंकि यह जानना ही कर्मसे छूटनेका हेतु नहीं है, जैसे बेडी आदिसे बंधे हुए पुरुषके उस बेडी आदि बंधनके स्वरूपका जानना मात्रपन ही बेडी आदि कटनेका कारण नहीं होता, उसी तरह कर्मके बंधका स्वरूप जानने मात्रसे ही कर्मबंधसे नहीं छूटता । इस कथनसे कर्मके बंधके विस्तारकी रचनाके ( अनेक प्रकार होनेके ) जाननेमात्रसे ही जो कोई अन्यमती आदि मोक्ष मानते हैं वे उसके ज्ञानमात्रमें ही संतुष्ट हैं उनका खंडन किया है ॥ भावार्थ-कोई अन्यमती ऐसा मानते हैं कि बंधका स्वरूप जाननेसे मोक्ष है उनके कहनेका इस कथनकर निराकरण जानना । जाननेमात्रसे ही बंध नहीं कटता बंध तो काटनेसे ही कटता है ॥ २८८।२८९।२९० ॥ ___ आगे कहते हैं कि बंधकी चिंता करनेपर भी बंध नहीं कटता;-[ यथा ] जैसे कोई [बंधनबद्धः ] बंधनकर बंधा हुआ पुरुष [बंधान चिंतयन् ] उन बंधोंको विचारता हुआ (उसका सोच करता हुआ) भी [विमोक्षं] मोक्षको [न प्राप्नोति] नहीं पाता तथा ] उसी तरह [बंधान् चिंतयन् ] कर्मबंधको चिंता करता हुआ [जीवोपि] जीव भी [विमोक्षं] मोक्षको [न प्राप्नोति ] नहीं पाता || टीकाअन्य कोई ऐसा मानते हैं कि बंधकी चिंताका प्रबंध मोक्षका कारण है यह भी मानना असत्य है। यहां भी अनुमानका प्रयोग ऐसा ही है कि कर्मबंधनकर बंधे हुए पुरुषके उस बंधकी चिंताका जो प्रबंध है कि, यह बंध कैसे छूटेगा ? इस रीतिसे मनको लगाये, ४९ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy