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________________ अधिकार: ७ ] समयसारः ३८१ सति आत्मकार्यत्वाभावात् । ततोऽधः कर्मेद्देशिकं च पुद्गलद्रव्यं न मम कार्यं नित्यमचेतनत्वे सति मत्कार्यत्वाभावात् इति तत्त्वज्ञानपूर्वकं पुगलद्रव्यं निमित्तभूतं प्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं प्रत्याचष्टे तथा समस्तमपि परद्रव्यं प्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तं भावं प्रत्याचष्टे । एवं द्रव्यभावयोरस्ति निमित्तनैमित्तिकभावः । " इत्यालोच्य विवेच्य तत्किल परद्रव्यं समग्रं बलात्तन्मूलं बहुभाव संततिमिमामुद्धर्तुकामः समं । आत्मानं समुपैति निर्भरवहत्पूर्णैकसंचिद्युतं येनोन्मूलितबंध एष भगवानात्मात्मनि स्फूर्जति ॥ १७८ ॥ तदेवाधाकर्म पुनरपि गाथाद्वयेन कथ्यते - अंधाकर्मोपदेशिकं च पुद्गलमयमेतद्द्रव्यं । कथं तन्मम कारितं यन्नित्यमचेतनमुक्तं ॥ यदिदमाहारकपुद्गलद्रव्यमधाकर्मरूपमौपदेशिकं च चेतनशुद्धात्मद्रव्यपृथक्त्वेन नित्यमेवाचेतनं भणितं तत्कथं मया कृतं भवति कारितं वा कथं भवति ? न कथमपि । कस्माद्धेतोः ? निश्चयरत्नत्रयलक्षणभेदज्ञाने सति आहारविषये मनोवचनकायकृतकारितानुमानाभावात् । इत्यौपदेशिक व्याख्यानमुख्यत्वेन च गाथा - द्वयं गतं । अयमत्राभिप्रायः । पश्चात्पूर्वं संप्रतिकाले वा योग्याहारादिविषये मनोवचनकायकृतकारितानुमतरूपैर्नवभिर्विकल्पैः शुद्धास्तेषां परकृताहारादिविषये बंधो नास्ति । यदि पुनः परकीयपरिणामेन बंधो भवति तर्हि कापि काले निर्वाणं नास्ति । तथा चोक्तं । णवकोडिकम्मग्रहण करता है उसके रागादिभाव भी । भाव जानना । ऐसा होनेपर जो परद्रव्यको होते हैं उनका कर्ता भी होता है तब कर्मका बंध भी करता है और जब ज्ञानी हो जाता है तब किसी ग्रहण करनेका राग नहीं रागादिरूप परिणमन भी नहीं तब आगामी कर्मबंध भी नहीं । इसतरह ज्ञानी परद्रव्यका कर्ता नहीं है । अब इस अर्थका कलशरूप १७८ वां काव्य कह परद्रव्यके त्यागका उपदेश करते हैं - इत्यालोच्य इत्यादि । अर्थ - जो पुरुष इसतरह परद्रव्यका और अपने भावका निमित्त - नैमित्तिकपना विचारकर उससमस्त परद्रव्यको अपने बलसे ( पराक्रम - उद्यमसे ) त्यागकर तथा परद्रव्य जिसका मूल है ऐसे बहुत भावोंकी परिपाटीको दूरसे युगपत् ( एक समयमें ) उडानेको चाहताहुआ अतिशय से वहनेवाला प्रवाहरूप धारावाही पूर्ण एक संवेदनकरयुक्त जो अपना आत्मा उसे प्राप्त होता है । जिससे कि जिसने कर्मबंधन मूलसे उखाड़ दियें हैं, ऐसा भगवान् यह आत्मा आपमें ही स्फुरायमान ( प्रकट ) होता है ॥ भावार्थ- परद्रव्य और अपने भावका निमित्तनैमित्तिकभाव जान समस्त परद्रव्यको त्यागे तब समस्त रागादिभावोंकी संतती कट जाती है, उससमय आत्मा अपना ही अनुभव करताहुआ कर्मके बंधनको काट आपमें ही प्रकाशरूप प्रगट होता है । इसलिये जो अपना हित चाहते हैं वे ऐसे करो || अब बंधका अधिकार पूर्ण किया । उसके अंतमंगलरूप ज्ञानकी महिमाका अर्थरूप १७९ वां कलशकाव्य कहते हैं—रागादि इत्यादि । अर्थ - जिसने अज्ञानरूप अंधकार दूर करदिया है और इसतरह अच्छी रीति से सजी ( तयार हुई ) है कि इसका फैलाव
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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