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________________ ३८० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [बंधअधःकर्माद्याः पुद्गलद्रव्यस्य य इमे दोषाः । कथं तान् करोति ज्ञानी परद्रव्यगुणास्तु ये नित्यं ॥ २८६ ॥ अधःकौदेशिकं च पुद्गलमयमिदं द्रव्यं । कथं तन्मम भवति कृतं यन्नित्यमचेतनमुक्तं ॥ २८७ ॥ यथाधःकर्मनिष्पन्नमुद्देशनिष्पन्नं च पुद्गलद्रव्यनिमित्तभूतमप्रत्याचक्षाणो नैमित्तिकभूतं बंधसाधकं भावं न प्रत्याचष्टे तथा समस्तमपि परद्रव्यमप्रत्याचक्षाणस्तन्निमित्तकं भावं न प्रत्याचष्टे । यथा चाधःकर्मादीन् पुद्गलद्रव्यदोषान्न नाम करोत्यात्मा परद्रव्यपरिणामत्वे गुणाः ॥ स्वयं पाकेनोत्पन्न आहार अधाकर्मशब्देनोच्यते तत्प्रभृतिव्याख्यानं करोति-अधाकमाद्या ये इमे दोषाः, कथंभूताः ? शुद्धात्मनः सकाशात्परस्याभिन्नस्याहाररूपपुद्गलद्रव्यस्य गुणाः । पुनरपि कथंभूताः ? तस्यैवाहारपुद्गलस्य पचनपाचनादिक्रियारूपाः तान्निश्चयेन कथं करोतीति ज्ञानीति प्रथमगाथार्थः । अनुमोदयति वा कथमिति द्वितीयगाथार्थः । परेण गृहस्थेन क्रियमाणान् , न कथमपि । कस्मात् ? निर्विकल्पसमाधौ सति आहारविषयमनोवचनकायकृतकारितानुमननाभावात् इत्याधाकर्मव्याख्यानरूपेण गाथाद्वयं गतं ॥ २८६ ॥ आहारग्रहणात्पूर्व तस्य पात्रस्य निमित्तं यत्किमप्यशनपानादिकं कृतं तदौपदेशिकं भण्यते, तेनौपदेशिकेन सह करता ( त्याग न करता ) जो मुनि वह उस द्रव्यके नैमित्तिकभूत और बंधके साधक ऐसे भावोंको भी त्याग नहीं करता, उसीतरह समस्त परद्रव्यको जो नहीं त्यागता है वह उसके निमित्तसे हुए भावोंको भी नहीं त्यागता। तथा जैसे अधःकर्म आदिक पुद्गलद्रव्योंको आत्मा नहीं करता, क्योंकि ये पर पुद्गलद्रव्यके परिणाम हैं उसपनेके होनेपर आत्माके कार्यपनेका इनके अभाव है, इसकारण ज्ञानी ऐसा जानता है कि अधःकर्म उद्देशिक पुद्गलद्रव्य हैं वे मेरे कार्य नहीं हैं क्योंकि ये नित्य ही अचेतन होनेसे मेरे कार्यपनेका इनके अभाव है । ऐसे तत्त्वज्ञानपूर्वक निमित्तभूत पुद्गलद्रव्यको त्यागताहुआ मुनि बंधके साधक नैमित्तिकभूत भावको भी त्यागता है; उसीतरह समस्त परद्रव्यको त्याग करता हुआ उस परद्रव्यके निमित्तसे हुए भावोंको भी त्यागता है । इसतरह द्रव्य और भाव इन दोनोंका आपसमें निमित्तनैमित्तिकभाव है भावार्थ-यह द्रव्य और भावका निमित्तनैमित्तिकपना उदाहरणसे दृढ ( पुष्ट ) किया है। जैसे लौकिक जन कहते हैं कि जैसा अन्न खाय वैसी ही बुद्धि हो जाती है, उसीतरह शास्त्रमें उदाहरण है-कि, जो पापकर्मकर आहार उत्पन्न हो उसे अधःकर्म निष्पन्न कहते हैं तथा जो आहार किसीके निमित्त बनाहुआ हो उसे उद्देशिक कहते हैं। ऐसा आहार जो पुरुष सेवन करे उसके वैसे ही भाव होते हैं इसतरह द्रव्य भावका निमित्तनैमित्तिकभाव है, उसीतरह समस्त द्रव्योंका निमित्तनैमित्तिक १ ण मुंचदि तेण कम्मबंधेण पाठोयं तात्पर्यवृत्तौ ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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