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________________ ३७२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [बंध- यथा खलु केवलः स्फटिकोपल: परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धखभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते, परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणम्यते । तथा केवलः किलात्मा परिणामस्वभावत्वे सत्यपि स्वस्य शुद्धस्वभावत्वेन रागादिनिमित्तत्वाभावात् रागादिभिः स्वयं न परिणमते परद्रव्येणैव स्वयं रागादिभावापन्नतया स्वस्य रागादिनिमित्तभूतेन शुद्धस्वभावात्प्रच्यवमान एव रागादिभिः परिणम्यते, इति तावद्वस्तुस्वभावः । “न जातु रागादिनिमित्तभावमात्मात्मनो याति यथार्ककांतः । तस्मिन्निमित्तं परसंग एव वस्तुस्वभावोऽयमुदेति तावत् ॥१७५॥ इति वस्तुस्वभावं स्वं ज्ञानी जानाति तेन सः । रागादीन्नात्मनः कुर्वन्नातो भवति कारकः ॥ १७६॥" २७८ ॥ २७९ ॥ स्थानीयकर्मोदयरूपपरोपाधिं विना रागादिविभावैर्न परिणमति पश्चात्सहजस्वच्छभावच्युतः सन् स एव रज्यते । कैः ? कर्मोदयनिमित्तैरागादिदोषैः परिणामैरिति, तेन ज्ञायते कर्मोदयजनिता भी अपने शुद्धस्वभावपनेसे तो रागादि निमित्तके अभावसे रागादिकोंसे आप नहीं परिणमता, आप ही अपने रागादि परिणाम होनेका निमित्त नहीं है परंतु परद्रव्य स्वयं रागादि भावको प्राप्त होनेपनेसे स्फटिकके रागादिकका निमित्तभूत है उसकर शुद्ध स्वभावसे च्युत ( रहित ) हुआ ही रागादि रंगरूप परिणमता है, उसीतरह अकेला आत्मा परिणमन स्वभावरूप होनेपर भी अपने शुद्धस्वभावपनेकर रागादि निमित्तपनेके अभावसे आप ही रागादि भावोंकर नहीं परिणमता अपने आप ही रागादि परिणामका निमित्त नहीं है परंतु परद्रव्य स्वयं रागादिभावको प्राप्त होनेपनेसे आत्माके रागादिकका निमित्तभूत है उसकर शुद्ध स्वभावसे च्युतहुआ ही रागादिककर परिणमता है। ऐसा ही वस्तुका स्वभाव है। भावार्थ-आत्मा एकाकी तो शुद्ध ही है परंतु परिणामस्वभाव है जिस तरह का परका निमित्त मिले वैसा ही परिणमता है । इसलिये रागादिकरूप परद्रव्यके निमित्तसे परिणमता है। यहां स्फटिकमणिका दृष्टांत है-कि, स्फटिकमणि आप तो केवल एकाकार शुद्ध ही है परंतु जब परद्रव्यकी ललाई आदिका डंक लगे तब ललाई आदिरूप परिणमती है । ऐसा यह वस्तुका ही स्वभाव है इसमें अन्य कुछ भी तर्क नहीं कर सकते । अब इस अर्थका कलशरूप १७५ वां श्लोक कहते हैंन जातु इत्यादि । अर्थ-आत्मा अपने रागादिकके निमित्तभावको कभी नहीं प्राप्त होता उस आत्मामें रागादिक होनेका निमित्त परद्रव्यका संग ( संबंध ) ही है । यहां सूर्यकांतमणिका दृष्टांत है-जैसे सूर्यकांतमणि आप ही तो अग्निरूप नहीं परणमती उसमें सूर्यका बिंब अग्निरूप होनेको निमित्त है वैसे जानना । यह वस्तुका स्वभाव उदयको प्राप्त है किसीका किया हुआ नहीं है। आगे कहते हैं कि ऐसे वस्तूके स्वभावको
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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