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________________ अधिकारः ७] समयसारः। एवंविधहेतुत्वेन निर्धारितस्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वं दर्शयति; दुक्खिदमुहिदे जीवे करेमि बंधेमि तह विमोचेमि । जा एसा मूढमई णिरत्थया साहु दे मिच्छा ॥ २६६ ॥ दुःखितसुखितान् जीवान् करोमि बन्धयामि तथा विमोचयामि । __ या एषा मूढमतिः निरर्थिका सा खलु ते मिथ्या ॥ २६६ ॥ परान् जीवान् दुःखयामि सुखयामीत्यादि बंधयामि वा यदेतदध्यवसानं तत्सर्वमपि परभावस्य परस्मिन्नव्याप्रियमाणत्वेन स्वार्थक्रियाकारित्वाभावात् खकुसुमं लुनामीत्यध्यवसानवन्मिथ्यारूपं केवलमात्मनोऽनर्थायैव ॥ २६६ ॥ स्याध्यवसानस्य स्वार्थक्रियाकारित्वाभावेन मिथ्यात्वमसत्यत्वं दर्शयति;-दुक्खिदमुहिदे जीवे करेमि बंधामि तह विमोचेमि दुःखितसुखितान् जीवान् करोमि, बध्नामि, तथा विमोचयामि जा एसा तुज्झ मदी णिरच्छया साहु दे मिच्छा या एषा तव मतिः सा निरर्थिका निष्प्रयोजना हु स्फुटं । दे अहो ततः कारणात् मिथ्या वितथा व्यलीका भवति । कस्मात् ? इति चेत् , भवदीयाध्यवसाने सत्यपि परजीवानां सातासातोदयाभावात् सुखदुःखाभावः स्वकीयाशुद्धशुद्धाध्यवसानाभावात् बंधो मोक्षाभावश्चेति ॥ २६६ ॥ नहीं उपजता । इसीसे बाह्य वस्तुका त्याग कराया गया है । यदि बंधका कारण बाह्य वस्तु ही कहो तो इसमें व्यभिचार आता है । व्यभिचार उसे कहते हैं कि कारण किसी जगह दीखे किसी जगह नहीं दीखे। उसका दृष्टांत ऐसे है जैसे कोई मुनि ईर्यासमितिसे यत्नकर गमन करता था उस समय उसके पैरोंके नीचे कोई उड़ता जीव आपड़ा फिर मरगया तो उसकी हिंसा मुनीश्वरको नहीं लगती । सो यहां बाह्यदृष्टिकर देखाजाय तो हिंसा हुई परंतु मुनिके हिंसाका अध्यवसान नहीं है इसलिये बंधका कारण नहीं है । उसीतरह अन्य भी बाह्यवस्तु जानना । बाह्यवस्तुके विना निराश्रय अध्यवसाय नहीं होता इसलिये उसका निषेध ही है ॥ २६५ ॥ आगे कहते हैं कि इसप्रकार बंधके कारणपनेसे निश्चय किया जो अध्यवसान उसके अपनी अर्थक्रियाका करनेवालापना नहीं है इसलिये उसके मिथ्यापन है। जिसके अर्थक्रियाकारीपन नहीं है वही मिथ्या है जो करना चाहिये वह नहीं होता इसलिये ऐसी चाह करना झूठ है ऐसा दिखलाते हैं; हे भाई [ ते या एषा मूढमतिः तेरी जो ऐसी मूढबुद्धि है कि मैं [जीवान् ] जीवोंको [ दुःखितसुखितान् । दुःखी सुखी [ करोमि ] करता हूं [ बंधयामि ] बंधाता हूं [ तथा ] और [विमोचयामि ] छुड़ाता हूं [सा] वह मोहस्वरूप बुद्धि [निरर्थिका] निरर्थक है
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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