________________
अधिकारः ७]
समयसारः।
३३१
अथ बंधाधिकारः॥७॥
अथ प्रविशति बंधः । “रागोगारमहारसेन सकलं कृत्वा प्रमत्तं जगत्क्रीडतं रसभारनिर्भरमहानाट्येन बंधं धुनत् । आनंदामृतनित्यभोजि सहजावस्थां स्फुटं नाटयद्वीरोदारमनाकुलं निरुपधिज्ञानं समुन्मजति ॥ १६३॥
जह णाम कोवि पुरिसोणेहभत्तो दु रेणुबहुलम्मि ।
ठाणम्मि ठाइदूण य करेइ सत्थेहिं वायामं ॥ २३७॥ __ अथ प्रविशति बंधः। तत्र जहणाम कोवि पुरिसो इत्यादि गाथामादि कृत्वा पाठक्रमेण षट्पंचाशद्गाथापर्यंतं व्याख्यानं करोति । तासु षट्पंचाशद्गाथासु मध्ये करे ? वृक्षकी जड़ कटनेके वाद हरे पत्ते रहनेकी क्या अवधि ? । इसलिये इस अध्यात्मशास्त्रमें सामान्यपनेसे ज्ञानी अज्ञानी होनेका ही प्रधान कथन है । ज्ञानी हुए वाद शेष रहे कुछ कर्म हैं वे सहज ही मिट जायँग । जैसे कोई पुरुष दरिद्री था वह झोंपड़ीमें रहता था उसको भाग्य उदयसे धन सहित बड़े महलकी प्राप्ति हुई। उसमहलमें बहुत दिनका कूड़ा ( मैला ) भराहुआ था सो इस पुरुषने आके प्रवेश जब किया उसी दिनसे यह तो मलतका धनी संपदावान् वन गया । अब कूड़ा झारना रह गया है वह क्रमसे अपने बलके अनुसार झाड़ता है । जब सब झड जायगा तब उज्वल होजायगा तभी परमानंद भोगेगा, ऐसा जानना ॥ २३६ ॥ इस प्रकार रंगभूमिमें निर्जराका प्रवेश जो हुआ था वह अपना स्वरूप प्रगट दिखलाके निकल गया ॥ यहां तक गाथा २३६ और कलश १६२ हुए। सवैया-सम्यकवंत महंत सदा समभाव रहै दुःख संकट आये,
कर्मनवीन बंधै न तवै अर पूरव बंध झडे विन भाये । पूरण अंग सुदर्शनरूप धरै नित ज्ञान वटै निज पाये,
यों शिवमारग साधि निरंतर आनंद रूप निजातम थाये ॥१॥ इस प्रकार श्री पं० जयचंद्र कृत समयसार नामा ग्रंथकी आत्मख्याति नाम टीकाकी भाषावचनिकामें छठा निर्जरा अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ६॥
अथ बंधाधिकार । दोहा-"रागादिकतें कर्मकौ, बंध जानि मुनिराय । त6 तिनहिं समभावकरि, नमूं सदा तिन पाँय ॥" अब टीकाकारके वचन कहते हैं कि, अब बंध प्रवेश करता है । जैसे नृत्यके अखाड़ेमें स्वांग प्रवेश करे उसीतरह रंगभूमिमें बंध तत्त्वका
१ रागशब्द उपलक्षणं तेन द्वेषमोहादीनामपि ग्रहणं तस्य उद्गार आधिक्यं स एव महारस उन्मादकरसः तेन रागोद्वारमहारसेन । २ वेपयत् ।