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________________ अधिकारः ६] समयसारः। ३१३ राधनिमित्तो बंधः । "ज्ञानिन् कर्म न जातु कर्तुमुचितं किंचित्तथाप्युच्यते मुंश्वे हंत न जातु मे यदि परं दुर्भुक्त एवासि भोः । बंधः स्यादुपभोगतो यदि न तत्कि कामचारोऽस्ति ते ज्ञानं सन्वस बंधमेष्यपरथा स्वस्यापराधाद्भवं ॥ १५१ ॥ कर्तारं स्वफलेन यत्किल बलात्कमैव नो योजयेत् कुर्वाणः फललिप्सुरेव हि फलं प्राप्नोति यत्कर्मणः । व्यतिरेकदृष्टांतगाथा गता। तथा तेनैव प्रकारेण ज्ञानिनो जीवस्य वीतरागस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानं, रागत्वमज्ञानत्वं नेतुं न शक्यते । कस्मात् ? स्वभावस्यान्यथाकर्तुमशक्यत्वात् । किं कुर्वाणस्यापि ? भुंजानस्यापि । कानि? स्वकीयगुणस्थानावस्थायोग्यानि सचित्ताचित्तमिश्राणि विविधद्रव्याणि । ततः कारणात् चिरंतनबद्धकर्मनिर्जरैव भवति । नवतरस्य संवर इति व्यतिरेकदृष्टांतगाथा गता। अन्वयव्यतिरेकशब्देन सर्वत्र विधिनिषेधौ ज्ञातव्यौ इति । यथा यदा स एव पूर्वोक्तः सजीवशंखः कृष्णपरद्रव्यलेपवशात् , अंतरंगस्वकीयोपादानपरिणामाधीनः सन् श्वेतस्वभावत्वं विहाय कृष्णभावं गच्छेत् तदा शुक्लत्वं त्यजति । इत्यन्वयदृष्टांतगाथा गता। तथैव च यथा निर्जीवशंखः कृष्णपरद्रव्यलेपवशात् अंतरंगोपादानपरिणामाधीनः सन् श्वेतस्वभावत्वं विहाय कृष्णभावं गच्छेत् तदा शुक्लत्वं त्यजति । इति निर्जीवशंखनिमित्तं द्वितीयान्वयदृष्टांतगाथा गता। तथा तेनैव प्रकारेण ज्ञानी जीवोऽपि हि स्फुटं स्वकीयप्रज्ञापराधेन वीतरागज्ञानस्वभावत्वं विहाय मिथ्यात्वरागाद्यज्ञानयह बड़ा खेद है कि जो तेरा नहीं उसको तू भोगता है इसतरहसे तो तू खोटा खानेवाला है । हे भाई जो तू कहे कि परद्रव्यके उपभोगसे बंध नहीं होता है ऐसा सिद्धांतमें कहा है इसलिये भोगता हूं उस जगह तेरे क्या भोगनेकी इच्छा है ? तू ज्ञानरूप हुआ अपने स्वरूपमें निवास करे तो बंध नहीं है और जो भोगनेकी इच्छा करेगा तो तू आप अपराधी हुआ, तब अपने अपराधसे नियमकर बंधको प्राप्त होगा ॥ भावार्थज्ञानीको कर्म तो करना ही उचित नहीं और जो परद्रव्य जानकर भी उसे भोगे तो यह योग्य नहीं । परद्रव्यके भोगनेवालेको तो लोकमें चोर अन्यायी कहते हैं । और जो उपभोगसे बंध नहीं कहा है वह ऐसे है कि ज्ञानी विना इच्छा परकी बरजोरीसे उदयमें आयेको भोगे उसके बंध नहीं कहा और जो आप इच्छाकर भोगेगा तो आप अपराधी हुआ, तब बंध क्यों न होगा ? । आगे फिर इसी अर्थक दृढ करनेको काव्य कहते हैं-कर्तारं इत्यादि । अर्थ-निश्चयसे यह जानो कि कर्म अपने करनेवाले कर्ताको अपने फलकर जबरदस्तीसे तो नहीं लगता कि मेरे फलको तू भोग । जो कर्मका करता उस फलका इच्छक हुआ करता है वही उस कर्मका फल पाता है । इसलिये ज्ञानरूप हुआ, तथा जिसकी रागकी रचना कर्ममें दूर होगई है ऐसा मुनि कर्मको करता हुआ भी कर्मकर नहीं बंधता । क्योंकि जिसका एक स्वभाव उस कर्मके फलका परित्यागरूप ही है ऐसा मुनि है ॥ भावार्थ-कर्म तो कर्ताको जबरदस्तीसे अपने फलवे १ पचेंद्रियविषयाननुभवति । २ दुर्मुक्त एवासि एवमपि भोगो न कर्तव्य इति भावः । ४० समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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