SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 313
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३०० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जरा' इच्छा परिग्रहः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति इच्छात्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति । ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति । ततो ज्ञानी अज्ञा धम्मच्छि अधम्मच्छी आयासं सुत्तमंगपुष्वेसु । संगं च तहा णेयं देवमणुअत्तिरियणेरइयं ॥ अपरिग्रहो भणितः । कोऽसौ ? अनिच्छः तस्य परिग्रहो नास्ति यस्य बहिर्द्रव्येषु आकांक्षा नास्ति तेन कारणेन परमतत्त्वज्ञानी चिदानंदैकस्वभावं शुद्धात्मानं विहाय धर्माधर्माकाशाद्यंगपूर्वगतश्रुतबाह्याभ्यंतरपरिग्रहदेवमनुष्यतिर्यङ्नरकादिविभावपर्यायानेच्छति इति ज्ञेयं ज्ञातव्यं । ततः कारणात्तद्विषये निष्परिग्रहो भूत्वा तद्रूपेणापरिणमन् सन् दर्पणे बिम्बस्येव ज्ञायक एव भवति । अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो असणं च णिच्छदे णाणी अपरिग्रहो भणितः । स कः ? अनिच्छः । तस्य परिग्रहो नास्ति यस्य बहिर्द्रव्येषु इच्छा मूर्छा ममत्वं नास्ति । इच्छात्वज्ञानमयो भावः स च ज्ञानिनो न संभवति । अपरिग्गहो दु असणस्स जाणगो तेण सो होदि तत एव कारणात् आत्मसुखे तृप्तो भूत्वा अशनविषये निष्परिग्रहः आगे ज्ञानीके आहार करना भी परिग्रह नहीं है यह कहते हैं;-[अनिच्छः अपरिग्रहः ] इच्छारहित हो वही परिग्रह रहित है [भणितः] ऐसा कहा है [च] और [ज्ञानी] ज्ञानी [अशनं ] भोजनको [ न इच्छति ] नहीं इच्छता इसलिये [ अशनस्य ] ज्ञानीके भोजनका [ अपरिग्रहः ] परिग्रह नहीं है [ तेन ] इस. कारण [ सः] वह ज्ञानी [ज्ञायकः तु] अशनका ज्ञायक ही [भवति ] है ॥ टीका-इच्छा है वही परिग्रह है जिसके इच्छा नहीं है उसके परीग्रह भी नहीं । और इच्छा है वह अज्ञानमय भाव है सो ज्ञानीके अज्ञानमय भाव नहीं है । ज्ञानीके तो ज्ञानमय ही भाव है इसलिये ज्ञानी अज्ञानमय भावरूप इच्छाके अभावसे भोजनको नहीं चाहता इस कारण ज्ञानीके अशनका परिग्रह नहीं है ज्ञानमय जो एक ज्ञायक भाव उसके सद्भावसे यह ज्ञानी केवल अशनका ज्ञायक ही है । भावार्थज्ञानीके आहारकी भी इच्छा नहीं है इसकारण ज्ञानीके आहार करना भी परिग्रह नहीं है। यहांपर यह प्रश्न होता है कि आहार तो मुनि भी करते हैं उनके इच्छा है या नहीं? विना इच्छा आहार किस तरह करते हैं ? उसका समाधान-असातावेदनीयकर्मके उदयसे तो जठराग्निरूप क्षुधा उपजती है वीर्यांतरायके उदयकर उसकी वेदना सही नहीं जाती और चारित्रमोहके उदयकर ग्रहण करनेकी इच्छा उत्पन्न होती है सो इस इच्छाको कर्मके उदयका कार्य जानता है उस इच्छाको रोगके समान जान मैंटना चाहता है । इच्छासे अनुरागरूप इच्छा नहीं है अर्थात् ऐसी इच्छा नहीं होती कि मेरी
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy