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________________ अधिकारः ६ ] समयसारः । तस्य प्रकाशस्वभावं भिंदंति । तथा, आत्मनः कर्मपटलोदयावगुंठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयतो ज्ञानामिशयभेदा न तस्य ज्ञानस्वभावं भिंद्युः । किं तु प्रत्युतमभि - नंदेयुः । ततो निरस्तसमस्त भेदमात्मस्वभावभूतं ज्ञानमेवैकमालम्ब्यं । तदालंबनादेव भवति पदप्राप्तिः, नश्यति भ्रांतिः, भवत्यात्मलाभः सिद्धत्यनात्मपरिहारः, न कर्म मूर्छति, न रागद्वेषमोहा उत्प्लवते, न पुनः कर्म आस्रवति, न पुनः कर्म बध्यते, प्राग्बद्धं कर्म उपभुक्तं निर्जीर्यते, कृत्स्त्रकर्माभावात् साक्षान्मोक्षो भवति । " अच्छाच्छाः स्वयमु २९१ मन:पर्ययकेवलज्ञानाभेदरूपं यत्तन्निश्चयेन, एकमेव पदं परं किं तु यथादित्यस्य मेघावरणतारतम्यवशेन प्रकाशभेदा भवंति, तथा मतिज्ञानावरणादिभेदकर्मवशेन मतिश्रुतज्ञानादिभेदभिन्नं उस ज्ञानके आलंबनसे ही निजपदकी प्राप्ति होती है, उसीसे भ्रमका नाश होता है, उसीसे आत्माका लाभ होता है और अनात्मा के परिहारकी सिद्धि होती है । ऐसा होने पर कर्मके उदयकी मूर्छा नहीं होती, रागद्वेष मोह नहीं उत्पन्न होते, रागद्वेष मोहके विना फिर कर्मका आस्रव नहीं होता, आस्रव न होनेसे फिर कर्मको नहीं बांधता, पहले जो कर्म बांधे थे वे भोगने वाद निर्जराको प्राप्त होते हैं । सब कर्मोंका अभाव होकर साक्षात् मोक्ष होता है । ऐसा ज्ञानके आलंबनका महात्म है | भावार्थ - ज्ञानमें भेद कर्मोंके क्षयोपशमके अनुसार हुए हैं वे कुछ ज्ञानसामान्यको अज्ञानरूप नहीं करते उल्टे ज्ञानको ही प्रगट करते हैं । इसलिये भेदोंको गौणकर एक ज्ञान सामान्यका आलंबन लेके आत्माको ध्यावना । इसीसे सब सिद्धि होती है | अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं - अच्छाच्छाः इत्यादि । अर्थ - आत्माकी जो यह संवेदनकी व्यक्ति है अर्थात् अनुभव में आये हुए ज्ञान के भेद हैं वे निर्मलसे निर्मल अपने आप उछते हैं—प्रगट अनुभव में आते हैं। कैसे हैं वे भेद ? समस्त पदार्थों के समूहरूप रसके पीनेके बहुत बोझेसे मानों मतवाले हो गये हैं । यह भगवान् चैतन्यरूप समुद्र उठती हुई लहरोंसे अभिन्नरस हुआ एक है तौ भी अनेकरूप हुआ दोलायमान प्रर्वतता है, जिसकी निधि अद्भुत है ऐसा है ॥ भावार्थ – जैसे बहुतरत्नोंकर भरा समुद्र एक जलकर भरा है तो भी उसमें निर्मल छोटी बड़ी अनेक लहरें उठती हैं वे सब एक जलरूप ही हैं, उसीतरह यह आत्मा ज्ञानसमुद्र है सो एक ही है इसमें अनेक गुण हैं। और कर्मके निमित्तसे ज्ञानके अनेक भेद अपने आप व्यक्तिरूप होके प्रगट होते हैं वे व्यक्तियां एक ज्ञानरूप ही जाननी खंडखंडरूप नहीं अनुभव करनी । अब फिर भी विशेषतासे कहते हैं—क्लिश्यतां इत्यादि । अर्थ — कोई जीव, दुःखकर किये जानेवाले और मोक्षसे परान्मुख कर्मोंसे स्वयमेत्र ( जिनाज्ञा विना ) केश करें और कोई मोक्ष के सन्मुख, कथंचित् जिनाज्ञा में कहे गये ऐसे महाव्रत तथा तपके भारसे बहुत कालतक
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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