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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । आभिणिसुदोहिमणकेवलं च तं होदि एकमेव पदं । सो एसो परमट्ठो जं लहिदुं णिव्बुदिं जादि ॥ २०४ ॥ आभिनिबोधिक श्रुतावधिमनः पर्यय केवलं च तद्भवत्येकमेव पदं । स एष परमार्थः यं लब्ध्वा निर्वृतिं याति ॥ २०४ ॥ आत्मा किल परमार्थः तत्तु ज्ञानं, आत्मा च एक एव पदार्थः, ततो ज्ञानमप्येकमेव पदं, यदेतत्तु ज्ञानं नामैकं पदं स एष परमार्थः साक्षान्मोक्षोपायः । न चाभिनिबोधिका भेदा इदमेकपदमिह मिंदंति ? किं तु तेपीदमेवैकं पदमभिनंदति । तथाहि यथात्र सवितुर्घनपटलावगुंठितस्य तद्विघटनानुसारेण प्राकट्यमासादयतः प्रकाशनातिशयभेदा न केन कृत्वा ? परमात्मसुखसंवित्तिरूप स्वसंवेदनज्ञानस्वभावेनेति ॥ २०३ ॥ अथ मतिश्रुतावधिमन:पर्यय केवलज्ञानाभेदरूपं परमार्थसंज्ञं मोक्षकारणभूतं यत्परमात्मपदं तत्समस्तहर्षविषादादिविकल्पजालरहितं परमयोगाभ्यासादेवात्मानुभवति, इति प्रतिपादयति ;आभिणिमुदोहिमणकेवलं च तं होदि एकमेव पदं मतिश्रुतावधिद्वारा पूर्णरूप २९० दिया था कि शुद्धनय आत्माका शुद्ध पूर्णरूप जताता है सो इस नयके केवलज्ञानका परोक्षस्वाद आता है । ऐसा जानना ॥ २०३ ॥ [ निर्जरा आगे इसी अर्थरूप गाथा कहते हैं कि कर्मके क्षयोपशमके निमित्तसे ज्ञानमें भेद है जब ज्ञानका स्वरूप विचारा जाय तो ज्ञान एक ही है; - [ आभिनिबोधिक श्रुतावधिमनः पर्ययकेवलं च ] मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मन:पर्ययज्ञान, केज्ञान [ तत् एकमेव पदं भवति ] ये ज्ञानके भेद हैं वे ज्ञान पदको ही प्राप्त हैं सभी एक ज्ञान नामसे कहे जाते हैं [ स एषः परमार्थः ] सो यह शुद्धनयका विष यस्वरूप ज्ञानसामान्य है इसलिये यही शुद्धनय है [ यं लब्ध्वा ] जिसको पार आमा [निर्वृतिं] मोक्षपदको [ याति ] प्राप्त होता है ॥ टीका - निश्चयकर आत्मा परमपदार्थ है, वह आत्मा पूर्वकथित ज्ञान ही है, वह आत्मा एक ही पदार्थ है इसलिये ज्ञान भी एक पदको ही प्राप्त है, यह ज्ञाननामा एक पद है वह परमार्थस्वरूप साक्षात् मोक्षका उपाय है । मतिज्ञानादिक जो ज्ञानके भेद हैं वे उस ज्ञाननामा एक पदको भेदरूप नहीं करते इकट्ठा करते हैं अर्थात् एक ज्ञाननामा पदको ही वृद्धिरूप प्रगटकर प्रकाशते हैं । यही कहते हैं— जैसे इस लोक में बादलोंसे संकोचरूप आच्छादित सूर्यका उस बादलके दूर होनेके अनुसारसे प्रगढपना होता है तिसके प्रगट होने के व प्रकाशके हीनाधिक भेद हैं वे उसके प्रकाशरूप सामान्यस्वभावको नहीं भेदते, उसी तरह कर्मसमूहों के उदयकर संकोचरूप आच्छादित आत्मा उस कर्मके क्षयोपशम के अनुसार प्रगटपनेको प्राप्त हुए ज्ञानके हीनाधिक भेद हैं वे आत्मा के सामान्य ज्ञान - भावको नहीं भेदते किंतु ( उलटे ) प्रकाशरूप प्रगट ही करते हैं । इसलिये जिसमें समस्त भेद दूर होगये हैं ऐसे आत्माके स्वभावभूत एक ज्ञानको ही आलंबन करना चाहिये
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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