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________________ २८८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ निर्जराकिं तत्पदं? आदह्मि दव्वभावे अंपदे मोत्तूण गिण्ह तह णियदं । थिरमेगमिमं भावं उवलंब्भंतं सहावेण ॥ २०३ ॥ आत्मनि द्रव्यभावानपदानि मुक्त्वा गृहाण तथा नियतं । स्थिरमेकमिमं भावं उपलभ्यमानं स्वभावेन ॥ २०३॥ इह खलु भगवत्यात्मनि बहूनां द्रव्यभावानां मध्ये ये किल अतत्स्वभावेनोपलभ्यमानाः, अनियतत्वावस्थाः, अनेके, क्षणिकाः, व्यभिचारिणो भावाः ते सर्वेऽपि स्वयमख्यानकाले सर्वत्र तात्पर्येण ज्ञातव्यं ॥ २०१।२०२ ॥ अथ किं तत् परमात्मपदमिति पृच्छति;-आदमि व्वभावे अथिरे मोत्तूण आत्मद्रव्येऽधिकरणभूते, द्रव्यकर्माणि भावकर्माणि च यानि तिष्ठति तानि विनश्वराणि, इति विज्ञाय मुक्त्वा गिण्ह हे भव्य गृहाण । आगे पूछते हैं कि हे श्रीगुरो तुम वताओ वह पद कहां है ? उसका उत्तर कहते हैं;[आत्मानं ] आमामें [अपदानि ] परनिमित्तसे हुए अपदरूप [द्रव्यभावान् ] द्रव्य भावरूप सभी भावोंको [ मुक्त्वा ] छोड़कर [ नियतं ] निश्चित [स्थिरं] स्थिर [ एक ] एक [स्वभावेन ] खभावकर ही [उपलभ्यमानं] ग्रहण होने योग्य [इमं ] इस प्रत्यक्ष अनुभवगोचर [ भावं] चैतन्यमात्र भावको हे भव्य ! तू [ तथा गृहाण] जैसा है वैसा ग्रहण कर । वही अपना पद है ॥ टीका-निश्चयकर इस भगवान् आत्मामें द्रव्यभावरूप बहुत भाव दीखते हैं । उनमें कोई तो उस आत्माके खभावसे रहित हैं वे अनिश्चित अवस्थारूप हैं, अनेक हैं क्षणिक हैं व्यभिचारी हैं ऐसे भाव हैं, वे सभी अस्थायी हैं जिनका ठहरनेका स्वभाव नहीं है, इसलिये ठहरनेवाले आत्माके ठहरनेका स्थान होनेके योग्य नहीं हैं । इसकारण वे अपदस्वरूप हैं । और जो भाव आत्मस्वभावकर तो ग्रहणमें आता है तथा सदा निश्चित रहता है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है ऐसा एक चैतन्यमात्र ज्ञानभाव है । सो आप स्थायीभावस्वरूप है सदा विद्यमान पाया जाता है, वह ही तिष्ठनेवाले आत्माका ठहरनेका स्थान होने योग्य है। इसलिये यह भाव पदभूत है । इसकारण सभी अस्थायीभावोंको छोड़कर स्थायीभूत परमार्थरसपनेसे स्वादमें आता हुआ यह ज्ञान है वही एक आस्वादने योग्य है ॥ भावार्थ-पूर्व वर्णादिक गुणस्थानांत भाव कहे थे वे समी आत्मामें अनियत, अनेक क्षणिक, व्यभिचारी ऐसे भाव हैं वे आत्माके पद नहीं हैं। और यह जो स्वसंवेदनस्वरूप ज्ञान है वह नियत है, एक है, नित्य है, अव्यभिचारी है, स्थायीभाव है। वह आत्माका पद है सो ज्ञानियोंकर यही एक स्वाद लेने योग्य है ॥ अब इस अर्थका १ तात्पर्यवृत्तौ, 'अथिरे मोत्तूण' इति पाठः ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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