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________________ २८७ अधिकारः ६] समयसारः। सम्यग्दृष्टिरेव न भवति । ततो रागी ज्ञानाभावान्न भवति सम्यग्दृष्टिः । "आ संसारात्प्रतिपदममी रागिणो नित्यमत्ताः सुप्ता यस्मिन्नपदमपदं तद्धि बुध्यध्वमंधाः । एतैतेतः पदमिदमिदं यत्र चैतन्यधातुः शुद्धः शुद्धः खरसभरतः स्थायिभावत्वमेति ॥ १३८॥" ॥२०१॥२०२॥ सम्यग्दृष्टयो न भवंति, इति । तन्न, मिथ्यादृष्टयपेक्षया त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतीनां बंधाभावात् सरागसम्यग्दृष्टयो भवंति । कथं ? इति चेत् , चतुर्थगुणस्थानवर्तिनां जीवानां अनंतानुबंधिक्रोधमानमायालोभमिथ्यात्वोदयजनितानां पाषाणरेखादिसमानानां रागादीनामभावात् । पंचमगुणस्थानवर्तिनां पुनर्जीवानां, अप्रत्याख्यानक्रोधमानमायालोभोदयजनितानां भूमिरेखादिसमानां रागादीनामभावात् , इति पूर्वमेव भणितमास्ते । अत्र तु ग्रंथे पंचमगुणस्थानादुपरितनगुणस्थानवर्तिनां वीतरागसम्यग्दृष्टीनां मुख्यवृत्त्या ग्रहणं, सरागसम्यग्दृष्टीनां गौणवृत्त्येति व्याख्यानं सम्यग्दृष्टिव्या अपना पद जानते हैं उनको उपदेश करते हैं—आ संसारा इत्यादि । अर्थ-श्रीगुरु संसारी भव्यजीवको संबोधते हैं कि हे अंधे प्राणियो ! जो रागी पुरुष हैं वे अनादि संसारसे लेकर जिसपदमें सोते हैं निद्रामें मग्न हैं उस पदको तुम अपद समझो, यह तुमारा स्थान नहीं है । यहां दोवार कहनेसे अतिकरुणाभाव सूचित होता है । फिर कहते हैं कि तुमारा ठिकाना यह है यह है जहां चैतन्यधातु शुद्ध है शुद्ध है अपने स्वाभाविक रसके समूहसे स्थायीभावपनेको प्राप्त है। यहांपर दो शुद्धपद हैं वे द्रव्य और भाव दोनोंकी शुद्धताके लिये हैं । सो सब अन्यद्रव्योंसे जुदापना वह तो द्रव्यशुद्धता है और परके निमित्तसे हुए अपने भाव उनसे रहितभाव शुद्ध कहे जाते हैं सो इस तरफ आओ इस तरफ आओ यहां निवास करो ॥ भावार्थ-ये प्राणी अनादि संसारसे लेकर रागादिकको अच्छा जानकर उनको ही अपना स्वभावमान उन्हीं में निश्चित तिष्ठते (सोते ) हैं उनको श्रीगुरु दयाळु होके संबोधते हैं ( जगाते हैं सावधान करते हैं) कि हे अंधे प्राणियो ! तुम जिस पदमें सोते हो वह तुमारा पद नहीं है तुमारा पद तो चैतन्यस्वरूप-मय है उसको प्राप्त होओ ऐसें सावधान करते हैं । जैसे कोई महंतपुरुष मद पीकर मलिन जगहमें सोता हो उसको कोई आकर जगावे और कहे कि तेरी जगह तो सुवर्णमय धातुकी अतिदृढ शुद्ध सुवर्णसे रची और बाह्य कजौड़ेकर रहित शुद्ध ऐसी है । सो हम बतलाते हैं वहां आओ वहां ही शयना दिकर आनंदरूप हो। उसीतरह श्रीगुरुने उपदेशकर सावधान किया है कि बाह्य तो अन्यद्रव्योंकर मिलाप नहीं और अंतरंग विकार नहीं ऐसे शुद्धचैतन्यरूप अपने भावका आश्रय करो। दो दो वार कहनेसे अतिकरुणा अनुराग सूचित होता है ॥ २०१।२०२ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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