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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [संवरयति । ततः कर्म आस्रवति, ततो नोकर्म भवति, ततः संसारः प्रभवति । यदा तु आत्मकर्मणोर्भेदविज्ञानेन शुद्धचैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं उपलभते तदा मिथ्यात्वाविरतियोगलक्षणानां अध्यवसानानां आस्रवभावहेतूनां भवत्यभावः । तदभावे रागद्वेष प्रत्यक्षो भवति, केवलज्ञानापेक्षया परोक्षोऽपि भवति । सर्वथा परोक्ष एवेति वक्तुं नायाति । किंतु चतुर्थकालेऽपि केवलिनः, किमात्मानं हस्ते गृहीत्वा दर्शयति ? तेपि दिव्यध्वनिना भणित्वा गच्छंति । तथापि श्रवणकाले श्रोतृणां परोक्ष एव पश्चात्परमसमाधिकाले प्रत्यक्षो भवति । तथा इदानीं कालेऽपीति भावार्थः । एवं परोक्षस्यात्मनः कथं ध्यानं क्रियते, इति प्रश्ने परिहाररूपेण गाथाद्वयं गतं ॥ अथ, उदयप्राप्तद्रव्यप्रत्ययस्वरूपाणां रागाद्यध्यवसानानामभावे सति जीवगतरागादिभावकर्मरूपाणां अध्यवसानानां अभावो भवतीत्यादिरूपेण संवरस्य क्रमाख्यानं कथयति; तेसिं हेदू भणिदा अज्झवसाणाणि सध्वदरसीहिं । तेषां प्रसिद्धानां जीवगतरागादिविभावकर्मरूपाणां भावात्रवाणां हेतवः कारणानि भणितानि । कानि?, उदयप्राप्तद्रव्यप्रत्ययागतानि रागाद्यध्यवसानानि । कैः, सर्वदर्शिभिः । ननु अध्यवसानानि भावकर्मरूपाणि तानि जीवगतान्येव भवंति उदयप्राप्तद्रव्यप्रत्ययागतानि भावप्रत्ययानि कथं भवंतीति ? । नैवं, यतः कर्म और आत्माको जुदे जाने तब आत्माको अनुभवे । इस कारण भेदविज्ञान अतिशयकर भावनेयोग्य है ॥ फिर कहते हैं कि भेदविज्ञान कहांतक भावना ? भावये इत्यादि । अर्थ-इस भेदविज्ञानको निरंतर धाराप्रवाहरूप जिसमें कि विच्छेद न पड़े इसतरह तब तक भावे जबतक कि ज्ञान परभावोंसे छूटकर अपने स्वरूपज्ञानमें ही ठहरजाय ॥ भावार्थ-यहां ज्ञानका ज्ञानमें ठहरना दोप्रकारसे जानना । एक तो मिथ्यात्वका अभाव होके सम्यग्ज्ञान हो फिर मिथ्यात्वका अभाव होके सम्यग्ज्ञान होजाय उसके बाद मिथ्यात्व नहीं आये । दूसरा यह है कि शुद्धोपयोगरूप होके ज्ञान ठहरे अन्यविकाररूप नहीं परिणमें । सो जबतक दोनों प्रकार न बनैं तबतक निरंतर भेद विज्ञानकी भावना रखनी चाहिये॥ फिर भेदविज्ञानकी महिमा कहते हैं-भेद इत्यादि । अर्थजो कोई सिद्ध हुए हैं वे इस भेदविज्ञानसे ही हुए हैं और जो कर्मसे बंधे हैं वे इसी भेदविज्ञानके अभावसे बंधे हुए हैं ॥ भावार्थ-आत्मा और कर्मकी एकताके माननेसे ही संसार है वहां अनादिसे जवतक भेदविज्ञान नहीं है तबतक कर्मसे बंधता ही है । इसलिये कर्मबंधका मूल भेदविज्ञानका अभाव ही है । जो बंधे हैं वे इसीके अभावसे बंधे हैं और जो सिद्ध हुए हैं वे इस भेदविज्ञानके होनेपर ही हुए हैं । इसकारण प्रथम भेदविज्ञान ही मोक्षका कारण है । यहां ऐसा भी जानना कि विज्ञानाद्वैतवादी बौद्ध तथा वेदांती वस्तुको अद्वैत कहते हैं वे अद्वैतकी सिद्धि अनुभवसे ही कहते हैं उनका भी इस भेद विज्ञानसे सिद्धि कहनेसे निषेध हुआ, क्योंकि सर्वथा अद्वैत वस्तुका
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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