SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 282
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २६९ अधिकारः ५] समयसारः। नोकर्महेतुः । नोकर्म, संसारहेतुः इति ततो नित्यमेवायमात्मा, आत्मकर्मणोरेकत्वाध्यासेन मिथ्यात्वाज्ञानाविरतियोगमयमात्मानमध्यवस्यति । ततो रागद्वेषमोहरूपमास्रवभावं भावजीवो दिट्ठो य णादो य । तथैव वचनेन भण्यते तथैव मनसि गृह्यते। कोसौ ? जीवः, केन रूपेण ? मया दृष्टो ज्ञातश्चेति मनसा संप्रधारयति । तथा चोक्तं । “गुरूपदेशादभ्यासात्संवित्तः स्वपरांतरं । जानाति यः स जानाति मोक्षसौख्यं निरंतरं ॥" अथ कोविदिदच्छो साहू संपडिकाले भणिज्ज रूवमिणं । पञ्चक्खमेव दिलं परोक्खणाणे पवहृतं ॥ कोविदितार्थः साधुः संप्रतिकाले भणेत् रूपमिदं । प्रत्यक्षमेव दृष्टं परोक्षज्ञाने प्रवर्तमानं ॥ अथ मतं भणिज रूवमिणं पच्चक्खमेव दिé परोक्खणाणे पवटुंतं । योसौ प्रत्यक्षेणात्मानं दर्शयति तस्य पार्श्वे पृच्छामो वयं । नैवं (?) कोविददिच्छो साह संपडिकाले भणिज्ज कोऽविदितार्थः साधुः संप्रतिकाले ब्रूयात् ? न कोपि । किं ब्रूयात् , न कोऽपि । किंतु रूवमिणं पच्चक्खमेव दिहं इदमात्मस्वरूपं प्रत्यक्षमेव मया दृष्टं । चतुर्थकाले केवलिज्ञानिवत् । अपि तु नैवं । कथभूतमिदमात्मस्वरूपं । परोक्खणाणे पवटुंतं केवलज्ञानापेक्षया परोक्षे श्रुतज्ञाने प्रवर्तमानं, इति । किंच विस्तरः । यद्यपि केवलज्ञानापेक्षया रागादिविकल्परहितं स्वसंवेदनरूपं भावश्रुतज्ञानं शुद्धनिश्चयनयेन परोक्षं भण्यते, तथापि इंद्रियमनोजनितसविकल्पज्ञानापेक्षया प्रत्यक्षं । तेन कारणेन आत्मा स्वसंवेदनज्ञानापेक्षया होनेसे राग द्वेष मोहरूप आस्रव भावका अभाव होता है, राग द्वेष मोहका अभाव होनेसे नोकर्मका अभाव होता है और नोकर्मका अभाव होनेसे संसारका अभाव होता है । ऐसा यह संवरका अनुक्रम है ॥ भावार्थ-जीवके जबतक आत्मा और कर्मके एकपनेका आशय है भेदविज्ञान नहीं है तबतक मिथ्यात्व अज्ञान अविरत योगरूप अध्यवसान विद्यमान हैं, उनसे राग द्वेष मोहरूप आस्रवभाव होता है, आस्रवभावसे कर्म बंधते हैं, कर्मसे नोकर्म शरीरारादिक प्रगट होते हैं और नोकर्मसे संसार है । परंतु जिससमय आत्मा और कर्मका भेदविज्ञान होजाता है तब शुद्ध आमाकी प्राप्ति होती है, उसके होनेसे मिथ्यात्वादि अध्यवसानका अभाव होता है, अध्यवसानका अभाव होनेसे राग द्वेष मोहरूप आस्रवका अभाव होता है, आस्रवके अभावसे कर्म नहीं बंधता, कर्मके अभावसे नोकर्म नहीं प्रगट होता और नोकर्मके अभावसे संसारका अभाव होता है। ऐसा संवरका अनुक्रम जानना ॥ अब इस संवरका कारण जो पहले ही भेदविज्ञान कहा था उसकी भावनाका उपदेश करते हैं उसका कलशरूप काव्य कहते हैं-संपद्यते इत्यादि । अर्थ-जिसकारण यह संवर निश्चयसे साक्षात् शुद्धात्मतत्त्वके पानेसे होता है और शुद्धात्म तत्त्वका पाना आत्मा और कर्मके भेदविज्ञानसे होता है अर्थात्
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy