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________________ समयसारः । कोऽसौ शुद्ध आत्मेति चेत्; णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो जाणओ दु जो भावो। ... एवं भणंति सुद्धं णाओ जो सो उ सो चेव ॥६॥ नापि भवत्यप्रमत्तो न प्रमत्तो ज्ञायकस्तु यो भावः । एवं भणंति शुद्धं ज्ञातो यःस तु स चैव ॥ ६ ॥ यो हि नाम स्वतःसिद्धत्वेनानादिरनंतोनित्योद्योतो विशदज्यो तिर्ज्ञायक एको भावः स संसारावस्थायामनादिबंधपर्यायानिरूपणया क्षीरोदकवत्कर्मपुद्गलैः सममेकत्वेपि द्रव्यस्वभावनिरूपणया दुरंतकषायचक्रोदयवैचित्र्यवशेन प्रवर्त्तमानानां पुण्यपापनिवर्तकानामुपात्तनवदिति ॥ ५ ॥ अथ कोयं शुद्धात्मेति पृष्ठे प्रत्युत्तरं ददाति;-णवि होदि अप्पमत्तो ण पमत्तो शुद्धद्रव्यार्थिकनयेन शुभाशुभपरिणमनाभावान्न भवत्यप्रमत्तः प्रमत्तश्च । प्रमत्तशब्देन मिथ्यादृष्टयादिप्रमत्तांतानि षड्गुणस्थानानि, अप्रमत्तशब्देन पुनरप्रमत्ताद्ययोग्यतान्यष्टगुणस्थानानि गृह्यते । स कः कर्ता । जाणगो दु जो भावो ज्ञायको ज्ञानस्वरूपो योऽसौ प्रधान है । इसलिये अर्थकी परीक्षा करना ॥ भावार्थ-आचार्य आगमका सेवन, युक्तिका अवलंबन, परापरगुरुका उपदेश और स्वसंवेदन इन चार वातोंकर उत्पन्न हुए अपने ज्ञानके विभवसे एकत्व विभक्त शुद्ध आत्माका स्वरूप दिखलाते हैं। उसे सुननेवाले हे श्रोताओ! अपने स्वसंवेदन प्रत्यक्षकर प्रमाण करो । कहीं-किसी प्रकरणमें भूलू तो उतना दोष ग्रहण नहीं करना । यहां अपना अनुभव प्रधान है इसीसे शुद्ध स्वरूपका निश्चय करो, ऐसा कहनेका आशय है ॥ ५ ॥ आगे ऐसा शुद्ध आत्मा कौन है कि जिसका स्वरूप जानना चाहिये ? ऐसे प्रश्नका उत्तररूप गाथासूत्र कहते हैं;-[यः तु] जो [ज्ञायकः भावः] ज्ञायक भाव है वह [अप्रमत्तः अपि] अप्रमत्त भी [न] नहीं है और [न प्रमत्तः] न प्रमत्त ही है [ एवं ] इस तरह [शुद्धं ] उसे शुद्ध [भणंति ] कहते हैं [च यः] और जो [ज्ञातः] ज्ञायकभावकर जानलिया सः] वह [स एव तु] वही है अन्य (दूसरा) कोई नहीं ॥ टीका-जो एक ज्ञायक भाव है वह अपने आपसे ही सिद्ध है किसीसे उत्पन्न नहीं हुआ। उस भावसे तो अनादिसत्तारूप है और कभी उस ज्योतिका विनाश नहीं होता इसलिये अनंत है, नित्य उद्योतरूप है इसकारण क्षणिक नहीं है । ऐसी स्पष्ट प्रकाशमान ज्योति है । वह संसारकी अवस्थामें अनादिबंधपर्यायकी निरूपणा (अपेक्षा ) से कर्मरूप पुद्गलद्रव्यकर सहित दूधजलकी तरह होनेपर भी द्रव्यके स्वभावकी अपेक्षासे देखा जाय तब तो जिसका मिटना कठिन है ऐसे कषायोंके उद्यकी वित्रितासे प्रवर्त हुए जो पुण्यपापके उत्पन्न करनेवाले समस्त अनेकरूप शुभ अशुभभाव उनके स्वभावकर नहीं परिणमती । ज्ञायक भावसे जड़भावरूप नहीं होती । इसलिये प्रमत्त भी नहीं है और अप्रमत्त भी नहीं है । ये ही
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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