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________________ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।। इह किल सकलोद्भासिस्यात्पदमुद्रितशब्दब्रह्मोपासनजन्मा समस्तविपक्षक्षोदक्षमातिनिस्तुषयुक्त्यवलंबनजन्मा निर्मलविज्ञानघनांतर्निमग्नपरापरगुरुप्रसादीकृतशुद्धात्मतत्त्वानुशासनजन्मा अनवरतस्यंदिसुंदरानंदमुद्रितामंदसंविदात्मकस्वसंवेदनजन्मा च यः कश्चनापि ममात्मनः स्वो विभवस्तेन समस्तेनापि यमेकत्वविभक्तमात्मानं दर्शयेहमिति बद्धव्यवसायोस्मि । किंतु यदि दर्शयेयं तदा स्वयमेव स्वानुभवप्रत्यक्षेण परीक्ष्य प्रमाणीकर्तव्यं । यदि तु स्खलेयं तदा तु न छलग्रहणजागरूकैर्भवितव्यम् ॥५॥ केन।अप्पणो सविहवेण आत्मनः स्वकीयमिति विभवेन आगमतर्कपरमगुरूपदेशस्वसंवेदनप्रत्यक्षेणेति । जदि दाएज यदि दर्शयेयं तदा पमाणं स्वसंवेदनज्ञानेन परीक्ष्य प्रमाणीकर्त्तव्यं भवद्भिः । चुकिज यदि च्युतो भवामि छलं ण चित्तव्वं तर्हि छलं न ग्राह्यं दुर्ज[दर्शयेयं ] दिखलाऊं तो उसे [प्रमाणं] प्रमाण ( स्वीकार ) करना [स्खलितं ] और जो कहींपर चूक (भूल ) जाऊं तो [छलं] छल [न] नहीं [गृहीतव्यम् ] ग्रहण करना । टीका-आचार्य कहते हैं कि जो कुछ मेरे आत्माका निजविभव है उस सबसे मैं इस एकत्व विभक्त आत्माको दिखलाऊंगा, ऐसा उद्यम किया है । कैसा है मेरे आत्माका निजविभव ? इस लोकमें प्रगट समस्त वस्तुओंको प्रकाश करनेवाला और स्यात् पदसे चिह्नित जो शब्दब्रह्म-अरहंतका परमागम उसकी उपासनाकर जिसका जन्म है । यहां 'स्यात्' इस पदका तो कथंचित् अर्थ है अर्थात् किसीप्रकारसे कहना और सामान्य धर्मसे वचनगोचर सब धर्मों का नाम आता है तथा वचनके अगोचर जो कोई विशेषधर्म हैं उनका अनुमान कराता है । इसतरह सब वस्तुओंका प्रकाशक है । इस कारण सर्वव्यापी कहा जाता है और इसीसे अरहंतके परमागमको शब्दब्रह्म कहते हैं । उसकी उपासनाकर ज्ञानविभव उत्पन्न ( प्रगट) हुआ है। फिर कैसा है ? समस्त जो विपक्ष-अन्यवादियोंकर ग्रहण कीगई सर्वथा एकांतरूप नयपक्ष उनके निराकरणमें समर्थ जो अतिनिस्तुष निर्बाधयुक्ति उसके अवलंबनसे जिसका जन्म है । फिर कैसा है ? निर्मलविज्ञानघन जो आत्मा उसमें अंतर्निमग्न परमगुरु सर्वज्ञ देव अपरगुरु गणधरादिकसे लेकर हमारे गुरुपर्यंत-उनकर प्रसादरूपसे दिया गया जो शुद्धात्मतत्त्वका अनुग्रहपूर्वक उपदेश, तथा पूर्वाचार्योंके अनुसार उपदेश उससे जिसका जन्म है । फिर कैसा है ? निरंतर झरता आस्वादमें आया और सुंदर जो आनंद उससे मिला हुआ जो प्रचुरसंवेदन स्वरूप वसंवेदन उसकर जिसका जन्म है । ऐसा जिस तिस प्रकारसे मेरे ज्ञानका विभव है उस समस्त विभवसे दिखलाता हूं। जो यह दिखलाऊं तो स्वयमेव अपने अनुभव प्रत्यक्षकर परीक्षाकर प्रमाण करना । यदि कहीं अक्षर मात्रा अलंकार युक्ति आदि प्रकरणोंमें चिग ( भूल ) जाऊं तो छल (दोष ) ग्रहण करनेमें सावधान न होना । क्योंकि शास्त्रसमुद्रके प्रकरण बहुत हैं इसकारण यहां स्वसंवेदनरूप अर्थ
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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