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________________ २६४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [संवरयो हि नित्यमेवाच्छिन्नधारावाहिना ज्ञानेन शुद्धमात्मानमुपलभमानोऽवतिष्ठते स ज्ञानमयाद् भावात् ज्ञानमय एव भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यगूकर्मास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसंतानस्य निरोधाच्छुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति । यो हि नित्यमेवाज्ञानेनाशुद्धमात्मानमुपलभनोऽवतिष्ठते सोऽज्ञानमयाद्भावादज्ञानभयो भावो भवतीति कृत्वा प्रत्यक्कास्रवणनिमित्तस्य रागद्वेषमोहसंतानस्यानिरोधादशुद्धमेवात्मानं प्राप्नोति । अतः शुद्धात्मोपलंभा गाथाद्वयं गतं ॥ १८४।१८५ ॥ अथ कथं शुद्धात्मोपलंभात्संवर इति पुनरपि पृच्छति;सुद्धं तु वियाणंतो सुद्धमेवप्पयं लहदि जीवो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरहितमनंतज्ञानादिगुणस्वरूपं शुद्धात्मानं निर्विकारसुखानुभूतिलक्षणेन भेदज्ञानेन विजानन्ननुभवन् ज्ञानी जीवः । एवं गुणविशिष्टं यादृशं शुद्धात्मानं ध्यायति भावयति तादृशमेव लभते । कस्मात् ? इति चेत् उपादानसदृशं कार्यमितिहेतोः जाणंतो दु असुद्धं असुद्धेमवप्पयं लहदि अशुद्धमिथ्यात्वादिपरिणतमात्मानं जानन्ननुभवन् सन् अशुद्धं, नरनारकादिरूपमेवात्मानं लभते । हते हैं;-[शुद्धं तु] शुद्ध आत्माको [ विजानन् ] जानता हुआ [ जीवः ] जीव [शुद्धं चैव] शुद्ध ही [आत्मानं ] आत्माको [ लभते ] पाता है [तु] और [अशुद्धं आत्मानं ] अशुद्ध आत्माको [ जानन् ] जानता हुआ जीव [ अशु. द्धेमव ] अशुद्ध आत्माको ही [ लभते ] पाता है ॥ टीका-जो पुरुष उसी अविच्छेदरूप धारावाही ज्ञानसे शुद्ध आत्माको पाता हुआ स्थित है वह पुरुष "ज्ञानमयभावसे ज्ञानमय ही भाव होते हैं" ऐसे न्यायकर आगामी कर्मके आस्रवके निमित्त जो रागद्वेष मोह उनकी संतान (परिपाटी ) रूप उत्पत्तिके निरोधसे शुद्ध आत्माको ही पाता है । और जो जीव नित्य ही अज्ञानकर अशुद्ध आत्माको पाता हुआ तिष्टता है वह जीव "अज्ञानमय भावसे अज्ञानमय ही भाव होता है" ऐसे न्यायकर आगामी कर्मके आस्रवणके निमित्त जो रागद्वेष मोह उनकी संतानरूप उत्पत्तिका निरोध न होनेसे अशुद्ध आत्माको ही पाता है। इसलिये शुद्ध आत्माकी प्राप्तिसे ही संवर होता है । भावार्थ-आत्माको शुद्ध अनुभवता है वह तो शुद्धको ही पाता है उसके आस्रव रुककर संवर होता है और जो आत्माको अशुद्ध अनुभवता है वह अशुद्धको ही पाता है उसके आस्रव नहीं रुकते अर्थात् संवर नहीं होता ॥ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-यदि इत्यादि । अर्थ-जो आत्मा किसीतरह (महान् भाग्यसे) धारावाही ज्ञानकर निश्चल शुद्ध आत्माको प्राप्त हुआ तिष्ठता है तब यह आत्मा, उदय होते हुए आत्मारूप क्रीडावनवाले अपने आत्माको परपरिणतिरूप राग द्वेष मोहके निरोधसे शुद्धको पाता है । इसतरह शुद्ध आत्माकी प्राप्तिसे संवर होता है । यहांपर जो धारावाही ज्ञान कहा गया है उसका अर्थ यह है कि जो एक प्रवाहरूप ज्ञान हो वह
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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