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________________ २५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [ आस्रवस्फोरस्फारैः खरसविसरैः प्लावयत्सर्वभावानालोकांतादचलमतुलं ज्ञानमुन्मग्नमेतत् ॥१२४ ॥" १७९ । १८०॥ इति आस्रवो निष्क्रांतः। इति श्रीमदमृतचंद्रसूरिविरचितायां समयसारव्याख्यायामात्मख्यातौ आस्रवप्ररूपकः चतुर्थोऽकः ॥४॥ जशुद्धात्मध्येयरूपसर्वकर्मनिर्मूलनसमर्थशुद्धनयो विवेकिभिर्न त्याज्य इति। एवं कारणव्याख्यानमुख्यत्वेन गाथाचतुष्टयं गतं ॥ १७९।१८० ॥ इति श्रीजयसेनाचार्यकृतायां समयसारव्याख्यायां शुद्धात्मानुभूतिलक्षणायां तात्पर्यवृत्तौ सप्तदशगाथाभिः पंचस्थलैः संवरविपक्षद्वारेण पंचमःआस्रवाधिकारः समाप्तः ॥ ४ ॥ ऐसा श्रीगुरुओंका उपदेश है । इसतरह आस्रवका अधिकार पूर्ण किया ॥ अब रंगभूमिमें आस्रवका स्वांग प्रवेश हुआ था उसको ज्ञानने यथार्थ जान स्वांग दूर कराया और आप प्रगट हुआ इस तरह ज्ञानकी महिमाके अर्थरूप काव्य कहते हैं-रागादीनां इत्यादि । अर्थ-रागादिक आस्रवोंके तत्काल (क्षणमात्रमें) सब तरह दूर होनेसे निय उद्योतरूप कुछ परम वस्तुको अंतरंगमें अवलोकन करनेवाले पुरुषके यह ज्ञान, अति विस्ताररूप फैलते हुए अपने निजरसके प्रवाहकर सब लोकपर्यंत अन्य भावोंको अंतर्मग्न करता हुआ उदयरूप प्रगट हुआ। कैसा है ज्ञान ? अचल है अर्थात् जैसेके तैसे सब पदार्थ जिसमें सदा प्रतिभासे हैं चले नहीं । फिर कैसा है ? जिसके बराबर दसरा कोई नहीं है ॥ भावार्थ-शुद्धनयको अवलंबनकर जो पुरुष अंगरंगमें चैतन्यमात्र परवस्तुको एकाग्र अनुभवते हैं उनके सब रागादिक आस्रव भाव दूर होके सब पदार्थोंको जाननेवाला निश्चय अतुल्य केवलज्ञान प्रगट होता है । ऐसा यह ज्ञान सबसे महान है । इसप्रकार आस्रवका स्वांग रंगभूमिमें प्रवेश हुआ था उसको ज्ञानने यथार्थस्वरूप जान लिया तब वह निकल गया ॥ १७९ ॥ १८०॥ सवैया तेईसा-'योग कषाय मिथ्यात्व असंयम आस्रव द्रव्यत आगम गाये, राग विरोध विमोह विभाव अज्ञानमयी यह भावित जाये । जे मुनिराज करें इनि पाल सुरिद्धि समाज लये सिव थाये, काय नवाय नमूं चितलाय कहूं जय पाय लहूं मन भाये ॥" यहांतक १८० गाथा और १२४ कलशा हुए। इसप्रकार पंडित जयचंद्रजी कृत समयसारग्रंथकी आत्मख्याति नाम टीकाकी भाषावचनिकामें आस्रव नामा चौथा अधिकार पूर्ण हुआ ॥ ४ ॥ १ अनंतानंतैः । २ खरसस्य चिद्रूपतायाः विसरैः प्रसरैः । ३ सर्वभावानतीतानागतवर्तमानान् पदार्थान् प्लावयन्नात्मनि प्रतिबिंबितान् कुर्वन् ।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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