SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २५० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । [आस्रवविजहति नहि सत्ता प्रत्ययाः पूर्वबद्धाः समयमनुसरंतो यद्यपि द्रव्यरूपाः। तदपि सकलरागद्वेषमोहव्युदासादवतरति न जातु ज्ञानिनः कर्मबंधः ॥ १२४॥ "रागद्वेषविमोहानां ज्ञानिनो यदसंभवः । तत एव न बंधोस्य ते हि बंधस्य कारणं ॥ १२५ ॥" १७३।१७४।१७५।१७६ ॥ एतेन कारणेन सम्यग्दृष्टिरबंधको भणित इति । किं च विस्तरः, मिथ्यादृष्टयपेक्षया चतुर्थगुणस्थाने सरागसम्यग्दृष्टिः, त्रिचत्वारिंशत्प्रकृतीनामबंधकः । सप्ताधिकसप्ततिप्रकृतीनामल्पस्थित्यनुभागरूपाणां बंधकोऽपि संसारस्थितिच्छेदं करोति । तथा चोक्तं सिद्धांते "द्वादशांगावगमस्ततीव्रभक्तिरनिवृत्तिपरिणामः केवलिसमुद्धातश्चेति संसारस्थितिघातकरणानि भवंति" तद्यथा, तत्र द्वादशांगश्रुतविषये अवगमो ज्ञानं व्यवहारेण बहिर्विषयः । निश्चयेन तु वीतरागस्वसंवेदनलक्षणं चेति । भक्ति पुनः सम्यक्त्वं भण्यते व्यवहारेण सरागसम्यग्दृष्टीनां परमेष्ठयाराधनारूपा । निश्चयेन सम्यग्दृष्टीनां शुद्धात्मतत्त्वभावनारूपा चेति ।न निवृत्तिरनिवृत्तिः शुद्धात्मस्वरूपादचलनं एकाग्रपरिणतिरिति । तत्रैवं सति द्वादशांगावगमो निश्चयव्यवहारज्ञानं जातं । भक्तिस्तु निश्चयव्यवहारसम्यक्त्वं जातं । अनिवृत्तिपरिणामस्तु सरागचारित्रानंतरं वीतरागचारित्रं जातमिति सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि भेदाभेदरत्नत्रयरूपेण संसारविच्छित्तिकारणानि भवंति। केषां ? छद्मस्थानामिति । केवलिनां तु भगवतां दंडकपाटप्रतरलोकपूरणरूपकेवलिसमुद्धातः संसारविच्छित्तिकारणमिति भावार्थः । एवं द्रव्यप्रत्यया विद्यमाना अपि रागादिभावास्रवाभावे बंधकारणं न भवंतीति व्याख्यानमुख्यत्वेन गाथाचतुष्टयं गतं ॥ १७३ । १७४ । १७५ । १७६ ॥ तक ही कर्मका कर्ता कहा गया है परके निमित्तसे परिणमे उसका ज्ञाता द्रष्टा हो तब ज्ञानी ही है कर्ता नहीं है । इसतरह अपेक्षासे सम्यग्दृष्टि हुए वाद चारित्रमोहका उदयरूप परिणाम होनेपर भी ज्ञानी ही कहा गया है । जबतक मिथ्यात्वका उदय है तबतक उस संबंधी रागद्वेषमोहभावरूप परिणमनेसे अज्ञानी कहा जाता है । ऐसे ज्ञानी अज्ञानी कहनेका विशेष ( भेद ) जानना । इसतरह बंध अबंधका विशेष है । और शुद्धस्वरूप में लीन रहनेके अभ्याससे साक्षात् संपूर्णज्ञानी केवलज्ञान प्रकट होनेसे होता है तब सर्वथा निरास्रव हो जाता है ऐसें पहले कहा भी है ॥ अब इस अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं-विजहति इत्यादि । अर्थ-यद्यपि पहले अज्ञानअवस्थामें बंधरूप जो हुए थे वे द्रव्यरूप प्रत्यय ( द्रव्यास्रव ) सत्तामें विद्यमान है क्योंकि उनका उदय अपनी स्थिति के अनुसार है इसलिये जबतक उदयका समय नहीं आता तबतक सत्तामें ही द्रव्यास्रव रहते हैं वे अपनी सत्ताको नहीं छोड़ते तौभी ज्ञानीके समस्त रागद्वेषमोहके अभावसे नवीन कर्मका बंध कभी अवतार नहीं रखता ॥ भावार्थ-रागद्वेषमोहभावोंके विना सत्ताका द्रव्यास्रव बंधका कारण नहीं है । यहां सकल रागद्वेषमोहका अभाव बुद्धिपूर्वक अपेक्षासे जानना॥ आगे इसी अर्थके दृढ करनेरूप गाथाकी सूचनिकाका श्लोक कहते हैंराग इत्यादि। अर्थ-जिसकारण ज्ञानीके रागद्वेषमोहका असंभव है इसीकारण ज्ञानीके बंध नहीं है क्योंकि रागद्वेषमोह ही बंधके कारण हैं ॥ १७३।१७४।१७५।१७६ ।।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy