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________________ अधिकारः ४ ] समयसारः। २४९ वभावसद्भावादेव बनंति ततो ज्ञानिनो यदि द्रव्यप्रत्ययाः पूर्वबद्धाः संति । संतु, तथापि स तु निरास्रव एव कर्मोदयकार्यस्य रागद्वेषमोहरूपस्यास्रवभावस्थाभावे द्रव्यप्रत्ययानामबंधहेतुत्वात् । पुरुसस्स विद्यमानान्यपि कर्माणि कचित्प्राकृते लिंगव्यभिचारोऽपि, इति वचनान्नपुंसकलिंगे पुलिंगनिर्देशः । पुलिंगेऽपि नपुंसकलिंगनिर्देशः । कारके कारकांतरनिर्देशो भवति, इति। तानि कर्माणि उदयात्पूर्वं निरुपभोग्यानि भवंति । केन दृष्टांतेन ? बाला स्त्री यथा पुरुषस्य । बंधदि ते उवभोजे तरुणी इच्छी जह णरस्स तानि कर्माणि उदयकाले उपभोग्यानि भवति । रागादिभावेन नवतराणि च बध्नति । कथं? यथा तरुणी स्त्री नरस्येति । अथ तमेवार्थं दृढयति । उदयात्पूर्व निरुपभोग्यानि भूत्वा कर्माणि स्वकीयगुणस्थानानुसारेण, उदयकालं प्राप्य यथाभोग्यानि भवंति, तथा रागादिभावेन परिणामेन आयुष्कबंधकाले अष्टविधभूतानि शेषकाले सप्तविधानि ज्ञानावरणादिद्रव्यकर्मभावेन पर्यायेण नवतराणि बन्नंति, नचास्तित्वमात्रेणेति । रागादिभावास्रवस्याभावे द्रव्यप्रत्यया अस्तित्वमात्रेण बंधकारणं न भवंति । कर्म जब विपाकअवस्थाको प्राप्त होजाते हैं तब उस उदयअवस्थामें भोगने योग्य हो जाते हैं तब जैसा आत्माका उपयोग विकारसहित हो उसी योग्यताके अनुसार पुद्गलकर्मरूप द्रव्यप्रत्यय सत्तारूप होनेपर भी कर्मके उदयानुसार जीवके भावोंके सद्भावसे ही बंधको प्राप्त होते हैं। इसकारण ज्ञानीके द्रव्यकर्मरूप प्रत्यय ( आस्रव ) सत्तामें मौजूद हैं तो रहो तौभी वह ज्ञानी तो निरास्रव ही है, क्योंकि कर्मके उदयका कार्य जो जीवका भाव रागद्वेष मोहरूप आस्रवभाव उसके अभावके होनेपर द्रव्यास्रवोंके बंधका कारणपना नहीं है । भावार्थ-सत्तामें मिथ्यात्वादि द्रव्यास्रव विद्यमान है तौभी वे आगामी कर्मबंधके करनेवाले नहीं है । क्योंकि बंधके करनेवाले तो जीवके रागद्वेषमोहरूप भाव होते हैं वे ही हैं । सो मिथ्यात्वादि द्रव्यास्रवके उदयके और जीवके भावोंके कार्यकारणभाव निमित्तनैमित्तिकरूप है । जब मिथ्यात्वादिका उदय आता है तब जीवका रागद्वेषमोहरूप जैसा भाव हो उसभावके अनुसार आगामी बंध होता है। और जब सम्यग्दृष्टि होजाता है तब मिथ्यात्व सत्तामेंसे नाश होजाता है उससमय उसके साथ अनंतानुबंधी कषाय तथा उससंबंधी अविरति, योगभाव ये भी नष्ट हो जाते हैं तब उससंबंधी जीवके रागद्वेषमोहभाव भी नहीं होते और उस मिथ्यात्व अनंतानुबंधीका बंध भी आगामी नहीं होता । तथा मिथ्यात्वका उपशम होता है वह सत्तामें ही रहता है तब सत्ताका द्रव्य उदयके विना बंधका कारण ही नहीं है । और जबतक अविरत सम्यग्दृष्टि आदिक गुणस्थानोंकी परिपाटीमें चारित्रमोहके उदयसंबंधी बंध कहा गया है वह यहां संसार सामान्यकी अपेक्षा तो बंधमें गिना नहीं है क्योंकि ज्ञानी अज्ञानीका भेद है। जबतक कर्मके उदयमें कर्मका स्वामीपना रखके परिणमता है तब ३२ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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