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________________ २३६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । [आस्रवरागद्वेषमोहा आस्रवाः इह हि जीवे स्वपरिणामनिमित्ताः, अजडत्वे सति चिदाभासाः, मिथ्यात्वाविरतिकषाययोगाः पुद्गलपरिणामाः, ज्ञानावरणादिपुद्गलकर्मास्रवणनिमिप्रथमतस्तावत् , वीतरागसम्यग्दृष्टेर्जीवस्य रागद्वेषमोहरूपा आस्रवा न संतीति संक्षेपेण व्याख्यानरूपेण 'मिच्छत्तं अविरमणं' इत्यादि गाथात्रयं । तदनंतरं रागद्वेषमोहास्रवाणां पुनरपि विशेषविवरणमुख्यत्वेन 'भावो रागादिजुदो' इत्यादि स्वतंत्रगाथात्रयं । ततः परं केवलज्ञानादिव्यक्तिरूपकार्यसमयसारकारणभूतनिश्चयरत्नत्रयपरिणतस्य ज्ञानिजीवस्य रागादिभावप्रत्ययनिषेधमुख्यत्वेन चउविह इत्यादि गाथात्रयं । अतःपरं तस्यैव ज्ञानिनो जीवस्य मिथ्यात्वादिद्रव्यप्रत्ययास्तित्वेऽपि वीतरागचारित्रभावनाबलेन रागादिभावप्रत्ययनिषेधमुख्यतया सव्वे पुव्वणिबद्धा इत्यादि सूत्रचतुष्टयं । तदनंतरं नवतरद्रव्यकर्मास्त्रवस्योदयागतद्रव्यप्रत्ययानां जीवगतरागादिभावप्रत्ययाः कारणमिति कारणव्याख्यानमुख्यत्वेन रागो दोसो इत्यादिसूत्रचतुष्टयं कथयति, इति समुदायेन सप्तदशगाथाभिः पंचस्थलैः आस्रवाधिकारसमुदायपातनिका । अथ द्रव्यभावास्रवस्वरूपं कथयति;-मिच्छत्तं अविरमणं कसायजोगा य सणसण्णा दु सण्णसण्णा इत्यत्र प्राकृतलक्षणबलात् अकारलोपो द्रष्टव्यः । मिथ्यात्वाविरतिप्रमादकषाययोगाः, कथंभूताः, भावप्रत्ययद्रव्यप्रत्ययरूपेण संज्ञाऽसंज्ञाश्चेतनाचेतनाः । अथवा संज्ञाः, आहारभयमैथुनपरिग्रहरूपाः, असंज्ञाः ईषत्संज्ञाः, इहलोकाकांक्षा परलोकाकांक्षाकुधर्माकांक्षारूपास्तिस्रः । जैसा नृत्यके अखाड़े नाचनेवाला स्वांगकर प्रवेश करता है उसीतरह यहां आस्रवका स्वांग है । वहां इस स्वांगको यथार्थ जाननेवाला जो सम्यग्ज्ञान है उसकी महिमारूप मंगल . करते हैं-अथ इत्यादि । अर्थ- 'अथ' शब्द मंगल तथा प्रारंभ वाची है सो यहांसे आगे कहते हैं-जो किसीसे नहीं जीता जासके ऐसा यह अनुभव गोचर धनुषधारी ज्ञानरूपी सुभट आस्रवको जीतता है । कैसा है ज्ञानरूप सुभट ? जो अमर्यादरूप फैलता और जिसकी थाह छद्मस्थ (अल्पज्ञानी) नहीं पासकता ऐसा महान् उदयवाला है । कैसा आस्रव है कि महान मदकर अतिशयसे भरा हुआ उन्मत्त है तथा संग्राम (लड़ाईकी ) की भूमिमें आगया है ॥ भावार्थ-यहां नृत्यके अखाड़ेमें आस्रवने प्रवेश किया है । सो नृत्यमें अनेक रसोंका वर्णन होता है इसलिये रसवत् अलंकारकर शांतरसमें वीर रसको प्रधानकर वर्णन किया है कि ज्ञानरूप धनुषधारी आस्रवको जीतता है । वह आस्रव सब जगतको जीत मदोन्मत्त हुआ संग्रामकी रंगभूमिमें आकर खड़ा होगया तब ज्ञान इससे भी बलवान् सुभट है वह उसीसमय उस आस्रवको जीतलेता है अर्थात् अंतर्मुहूर्त में कर्मका नाशकर केवल ज्ञान उत्पन्न करदेता है । ऐसी ज्ञानकी सामर्थ्य है ॥ आगे आस्रवका स्वरूप कहते हैं;-[मिथ्यात्वं अविरमणं] मिथ्यात्व अविरति [ कषाययोगौ च ] और कषाय योग [ संज्ञासंज्ञाः तु] ये चार आस्रवके भेद चेतनाके और जड़-पुद्गलके विकार ऐसे दो दो भेद जुदे २ हैं।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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