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२३० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् ।
[पुण्यपापअथ कर्मणः स्वयं बंधत्वं साधयति;
सो सव्वणाणदरिसी कम्मरएण णियेणवच्छण्णो । संसारसमावण्णो ण विजाणदि सव्वदो सव्वं ॥ १६०॥
स सर्वज्ञानदी कर्मरजसा निजेनावच्छन्नः।।
___ संसारसमापन्नो न विजानाति सर्वतः सर्वं ॥१६॥ ___ यतः यमेव ज्ञानतया विश्वसामान्यविशेषज्ञानशीलमपि ज्ञानमनादिस्वपुरुषापराधप्रवर्तमानकर्ममलावच्छन्नत्वादेव बंधावस्थायां सर्वतः सर्वमप्यात्मानमविजानदज्ञानभावेनैवेदमेवमवतिष्ठते । ततो नियतं स्वयमेव कर्मैव बंधः। अतः स्वयं बंधत्वात्कर्म प्रतिषिद्धं ॥ १६०॥ तीति कथयति;-सो सव्वणाणदरिसी कम्मरयेण णियेण उच्छण्णो-स शुद्धात्मा निश्चयेन समस्तपरिपूर्णज्ञानदर्शनस्वभावोऽपि निजकर्मरजसोच्छन्नो झंपितःसन् । संसारसमावण्णो णवि जाणदि सव्वदो सव्वं । संसारसमापन्नः, संसारे पतितः सन् नैव जानाति सर्व वस्तु, सर्वतः सर्वप्रकारेण । ततो ज्ञायते कर्म कर्तृ जीवस्य स्वयमेव बंध. रूपं कथं मोक्षकारणं भवतीति । एवं पापवत्पुण्यं बंधकारणमेवेति कथनरूपेण गाथा गता
आगे कर्मका स्वयमेव बंधपना सिद्ध करते हैं;-[सः] वह आत्मा स्वभावसे [ सर्वज्ञानदर्शी] सबका जाननेवाला और देखनेवाला है तौभी [निजेन कर्मरजसा] अपने कर्मरूपीरजसे [ अवच्छन्नः] आच्छादित ( व्याप्त ) हुआ [ संसारसमापन्नः ] संसारको प्राप्त होता हुआ [ सर्वतः ] सब तरहसे [ सर्व] सब वस्तुको [न विजानाति ] नहीं जानता ॥ टीका-जिस कारण यह ज्ञानरूप आत्मा आप स्वयमेव ज्ञानपनेकर सब पदार्थोंको सामान्यविशेषतासे जाननेके स्वभाववाला है तौभी अनादि कालसे अपने पुरुषार्थकर किये हुए अपराधसे प्रवर्तित जो कर्मरूपमल उससे आच्छादित ( व्याप्त-मलिन ) है । उस मलिन भावसे बंधावस्थामें सब प्रकारके सब ज्ञेयाकाररूप अपने स्वरूपको नहीं जानता हुआ अज्ञानभावसे ही यह आप तिष्ठता है। इस कारण यह निश्चय हुआ कि कर्म आप ही बंधस्वरूप है। इसीलिये आप ही बंधपनेरूप जानके प्रतिषेधा गया है । भावार्थ-यहां ज्ञानशब्दकर आत्माका ही ग्रहण किया गया है । सो यह ज्ञान स्वभावकर तो सबका देखने और जाननेवाला है परंतु अनादिसे आप अपराधी है इसलिये बांधे हुए कर्मोंसे आच्छादित है अतः अपने संपूर्णरूपको नहीं जानता हुआ अज्ञानरूप हुआ आप स्थित है उसके कर्म अपने आप ही बंधते हैं कर्मोंको आप लेकर नहीं बांधता आप तो अपने अज्ञानभावोंरूप परिणमता है तब कर्म स्वयमेव ( आप ही ) बंधरूप हो जाते हैं इसीलिए कर्मका प्रतिषेध है॥१६०॥