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________________ समयसारः । २११ यः करोति न हि वेत्ति स क्वचित् यस्तु वेत्ति न करोति स क्वचित् ॥ ९७ ॥ ज्ञप्तिः करोतौ न हि भासतेंतः ज्ञप्तौ करोतिश्च न भासतेंतः । ज्ञप्तिः करोतिश्च ततो विभिन्ने ज्ञाता न कर्तेति ततः स्थितं च ॥ ९८ ॥ कर्ता कर्मणि नास्ति नास्ति नियतं कर्मापि तत्कर्तरि द्वंद्वं विप्रतिषिध्यते यदि तदा का कर्तृकर्मस्थितिः । ज्ञाता ज्ञातरि कर्म कर्मणि सदा व्यक्तेति वस्तुस्थितिर्नेपथ्ये बत नानटीति रभसा मोहस्तथाप्येष किं ॥ ९९ ॥ अथवा नान तदनंतरमज्ञानमयभावस्य मिथ्यात्वादिपंचप्रत्ययभेदप्रतिपादनरूपेण गाथापंचकं । ततश्च जीवपुद्गलयोः परस्परोपादानकर्तृत्वनिषेधमुख्यत्वेन गाथात्रयं । ततः परं नयपक्षपातरहित शुद्धसमयसार 1 जबरदस्ती से कषायरूप परिणमन है उसका यह ज्ञाता है इसलिये अज्ञानसंबंधी कर्तापना इसके नहीं है परंतु निमित्तकी जबरदस्ती के परिणमनका फल कुछ होता है वह संसारका कारण नहीं है । जैसे वृक्ष जड़ कटनेके बाद किंचित् समयतक रहता है या नहीं भी रहता उसीतरह यहां भी जानना || फिर भी इसीको पुष्ट करते हैं—कर्ता इत्यादि । अर्थ — कर्ता तो कर्म में निश्चयसे नहीं है और कर्म है वह भी कर्ता में निश्चयकर नहीं है । इसतरह दोनों ही परस्पर विशेषकर निषेध किये जायँ तव कर्ता कर्मकी क्या स्थिति हो सकती है ? नहीं हो सकती । तब वस्तुकी मर्यादा व्यक्तरूप यह सिद्ध हुई कि ज्ञाता तो सदा ज्ञानमें ही है और कर्म है वह सदा कर्ममें ही है । तौभी यह मोह ( अज्ञान ) नेपथ्यमें क्यों नाचता है ? यह बड़ा खेद है । नेपथ्य अर्थात् शांत ललित उदात्त धीर इन चार आचरणोंसहित जो यह तत्त्वोंका नृत्य उसमें यह मोह कैसे नाचता है ? कर्ता कर्मभाव तो नेपथ्यस्वरूप नृत्यका आभूषण नहीं है इसतरह खेदसहित वचन आचार्य कहा है ॥ भावार्थ — कर्म तो पुद्गल है उसका कर्ता जीवको कहा जाय तो उन दोनों में तो बड़ा भेद है जीव तो पुद्गलमें नहीं है और पुद्गल जीवमें नहीं है। तब इन दोनों के कर्ता कर्म भाव कैसे वन सकता है ? इससे जीव तो ज्ञाता है सो ज्ञाता ही है पुगलका कर्ता नहीं है । और पुद्गलकर्म है वह कर्म ही है । वहां आचार्यने खेद करके कहा है कि ऐसे प्रगट भिन्न द्रव्य हैं तौभी अज्ञानीका यह मोह कैसे नाचता है ? कि "मैं तो कर्ता हूं और यह पुद्गल मेरा कर्म है" यह बड़ा अज्ञान है । फिर भी कहते हैं कि इसतरह मोह नाचे तो नाचो परंतु वस्तुका स्वरूप तो जैसा है वैसा ही रहता है— कर्ता कर्ता इत्यादि । अर्थ - यह ज्ञानज्योति अंतरंगमें अतिशय से अपनी चैतन्यशक्तिके समूह के भारसे अत्यंत गंभीर जिसका थाह नहीं इसतरह निश्चल व्यक्तरूप ( प्रगट ) हुआ तब पहले जैसे अज्ञानमें आत्मा कर्ता था उस तरह अब कर्ता नहीं होता और इसके अज्ञानसे जो पुद्गल कर्मरूप होता था वह भी अब कर्मरूप नहीं होता किंतु ज्ञान तो ज्ञानरूप ही हुआ और पुद्गल पुद्गलरूप रहा ऐसें प्रगढ़ 1
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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