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________________ २१० रायचन्द्र जैनशास्त्रमालायाम् । एष भगवान्पुण्यः पुराणः पुमान् ज्ञानं दर्शनमप्ययं किमथवा यत्किंचनैकोप्ययं ॥९४॥ दूरं भूरिविकल्पजालगहने भ्राम्यन्निजौघाच्युतो दूरादेव विवेकनिम्नगमनान्नीतो निजौघं बलात् । विज्ञानैकरसस्त देकर सिनामात्मानमात्मा हरन् आत्मन्येव सदा गतानुगततामायात्ययं तोयवत् ॥ ९५ ॥ विकल्पकः परं कर्ता विकल्पः कर्म केवलं । न जातु कर्तृकर्मत्वं सविकल्पस्य नश्यति ॥ ९६ ॥ यः करोति स करोति केवलं यस्तु वेत्ति स तु वेत्ति केवलं । नंतरं प्रत्यया एव कर्म कुर्वतीति समर्थनद्वारेण सूत्रसप्तकं । ततश्च जीवपुद्गल कथंचित्परिणामित्वस्थापनमुख्यत्वेन सूत्राष्टकं । ततः परं ज्ञानमयाज्ञानमयपरिणामकथनमुख्यतया गाथानवकं । नीचे मार्गकर जैसेका तैसा अपने जलके निवासमें आ मिलता है । उसीतरह आत्मा भी अनेक विकल्पोंके मार्गकर स्वभावसे च्युत हुआ भ्रमण करता कोई भेदज्ञानरूप ( विवेक ) नीचे मार्गकर अपने आप अपनेको खींचता हुआ अपने स्वभावरूप विज्ञानघनमें आ मिलता है । अब कर्ता कर्म अधिकारको पूर्ण करते हैं सो कर्ता कर्म के संक्षेप अर्थके कलशरूप श्लोक कहते हैं— विकल्पकः इत्यादि । अर्थ — विकल्प करनेवाला ही केवल कर्ता है और विकल्प केवल कर्म है अन्य कुछ कर्ता कर्म नहीं हैं । इस कारण जो विकल्पसहित है उसका कर्ता कर्मपना कभी नष्ट नहीं होता । भावार्थजहांतक विकल्पभाव है वहांतक कर्ता कर्मभाव है । जिससमय विकल्पका अभाव होता है उससमय कर्ता कर्मभावका भी अभाव हो जाता है । अब कहते हैं कि जो करता है वह करता ही है जो जानता है वह जानता ही है-यः करोति इत्यादि । अर्थ- जो करता है वह केवल करता ही है और जो जानता है वह केवल जानता ही है । जो करता है वह कुछ जानता ही नहीं है और जो जानता है वह कुछ भी नहीं करता है || भावार्थ — कर्ता है वह ज्ञाता नहीं है और ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है ॥ अब कहते हैं कि इसीतरह करनेरूप क्रिया और जाननेरूप क्रिया ये दोनों भिन्न हैंज्ञप्तिः इत्यादि । अर्थ - जाननेरूप क्रिया करनेरूप क्रियाके अंदर नहीं भासती और करनेरूप क्रिया जाननेरूप क्रियाके अंतरंग में नहीं भासती इसलिये ज्ञप्तिक्रिया और करोतिक्रिया दोनों भिन्न हैं । इसकारण यह सिद्धहुआ कि जो ज्ञाता है वह कर्ता नहीं है ॥ भावार्थ - जिससमय ऐसा परिणमता है कि मैं परद्रव्यको करता हूं उससमय तो उस परिणमन क्रियाका कर्ता ही है तथा जिससमय ऐसा परिणमता है कि मैं परद्रव्यको जानता हूं उससमय उस जानने क्रियारूप ज्ञाता ही है । यहां कोई पूछे कि अविरत सम्यग्कदृष्टि आदिके जबतक चारित्रमोहका उदय है तबतक कषायरूप परिणमन होता है वहां कर्ता कहैं या नहीं ? । उसका समाधान – जो अविरतसम्यग्दृष्टि आदि के श्रद्धान ज्ञानमय परद्रव्यके स्वामीपनेरूप कर्तापनेका अभिप्राय नहीं है परंतु उदयकी I 1
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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