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________________ समयसारः । २०७ रूपमेव केवलं जानाति न तु खरतरदृष्टिगृहीतसुनिस्तुषनित्योदितचिन्मयसमयप्रतिबद्धतया तदात्वे स्वयमेव विज्ञानघनभूतत्वात् श्रुतज्ञानात्मकसमस्तांतर्बहिर्जन्यरूपविकल्पभूमिकातिक्रांततया समस्तनयपक्षपरिग्रहभूतत्वात्कंचनापि नयपक्षं परिगृह्णाति स खलु निखिलविकल्पेभ्यः परतरः परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्ज्योतिरात्मख्यातिरूपोनुभूतिमात्रः समयसारः । चित्स्वभावभरभावितभावाऽभावभावपरमार्थतयैकं । बंधपद्धतिमपास्य समस्तां चेतये समयसारमपारं ॥ ९३ ॥” १४३॥ त्मरूपतया गृह्णाति तथायं गणधरदेवादिछद्मस्थजनोपि नयद्वयोक्तं वस्तुस्वरूपं जानाति तथापि नवरि केवलं चिदानंदैकस्वभावस्य समयस्य प्रतिबद्ध आधीनः सन् श्रुतज्ञानावरणीयक्षयोपशमजनितकविल्पजालरूपान्नयद्वयपक्षपातात् शुद्धनिश्चयेन दूरीभूतत्वान्नयपक्षपातरूपं स्वीकारं विकल्पं उत्पन्न होना होता है तौभी पर ज्ञेयोंके ग्रहण करनेमें उत्साहकी निवृत्ति है । इस कारण नयोंके स्वरूपका ज्ञाता ही है किसी भी नयपक्षको नहीं ग्रहण करता क्योंकि तीक्ष्ण ज्ञानदृष्टिकर ग्रहण किया जिसका निर्मल नित्य उदय ऐसा चैतन्य स्वरूप अपना शुद्धात्मा उससे इसके प्रतिबद्धपना है उसकर उस स्वरूपके अनुभवनेके समय स्वयमेव केवलीकी तरह विज्ञानघनरूप हुआ है । इसीसे श्रुतज्ञानस्वरूप जो समस्त अंतरंग और बाह्य अक्षरस्वरूप विकल्प उसकी भूमिकासे अतिक्रांत है उसपनेसे केवलीकी तरह समस्त नयपक्षके ग्रहणसे दूरीभूत है । ऐसा मतिश्रुतज्ञानी भी है, वह निश्चयकर समस्तविकल्पोंसे दूरवर्ती परमात्मा ज्ञानात्मा प्रत्यग्जोति आत्मख्यातिरूप अनुभूतिमात्र समयसार है ॥ भावार्थ-जैसे केवली भगवान् सदा नयोंकी पक्षके ज्ञाता द्रष्टा हैं वैसे श्रुतज्ञानी भी जिस समय समस्त नयपक्षोंसे रहित होके शुद्ध चैतन्यमात्र भावका अनुभव करता है तब नयपक्षका ज्ञाता ही है । एक नयकी सर्वथा पक्ष ग्रहण करे तो मिथ्यात्वसे मिला हुआ पक्षका राग हो । तथा प्रयोजनके वशसे एक नयको प्रधानकर ग्रहणकरे तो मिथ्यात्वके विना चारित्र मोहकी पक्षसे राग रहे और जब नयपक्षको छोड़ वस्तु स्वरूपको केवल जानता ही हो तब उसकाल श्रुतज्ञानी भी केवलीकी तरह वीतरागके समान ही होता है ऐसा जानना ॥ इस अर्थको मनमें धारणकर तत्त्ववेदी ऐसा अनुभव करता है ऐसे अर्थरूप कहते हैं-चित्स्वभाव इत्यादि । अर्थ-मैं तत्वका जाननेवाला परमात्माको अनुभवता हूं। जो समयसाररूप परमात्मा, चैतन्यखभावके पुंजकर भावित भाव अभावस्वरूप एक भावरूप परमार्थपनेसे एक है परमार्थसे विधि प्रतिषेधका विकल्प जिसमें नहीं है । पहले क्या करके अनुभवता हूं ? समस्त बंधकी परिपाटीको दूरकरके ॥ भावार्थ-परद्रव्यके कर्ताकर्मभावकर बंधकी परिपाटी चलरही थी उसको पहले दूरकर समयसारको अनुभवता हूं जो कि अपार है अर्थात् जिसके केवलज्ञानादि गुणका पार नहीं है ।। १४३ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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