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________________ समयसारः। २०५ वेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ८८ ॥ एकस्य वेद्यो न तथा परस्य चितिद्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिचिदेव ॥ ८९ ॥ एकस्य भातो न तथा परस्य चितिद्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥९० ॥ खेच्छासमुच्छलदनल्पविकल्पजालामेवं व्यतीत्य महतीं नयपक्षकक्षा । अंतर्बहिः समरसैकरसस्वभावं खं भावमेकमुपयात्यनुभूतिमानं ॥ ९१ ॥ इंद्रजालमिदमेवमुच्छलत्पुष्कलोचलविकल्पवीचिभिः । यस्य विस्फुरणमेव तत्क्षणं कृत्स्नमस्यति तदस्मि चिन्महः ॥ ९२ ॥" ॥१४२॥ एकस्य बद्धो न तथा परस्य चितिद्वयोविति पक्षपातौ । यस्तत्त्ववेदी च्युतपक्षपातस्तस्यास्ति नित्यं खलु चिच्चिदेव ॥ ६९ ॥ "समयाख्यानकाले या बुद्धिर्नयद्वयात्मिका । वर्तते बुद्धतत्त्वस्य सा स्वस्थस्य निवर्तते ॥ हेयोपादेयतत्वे तु विनिश्चित्य नयद्वयात् । त्यक्त्वा हेयमुपादेयावस्थानं साधुसम्मतं" ॥ १४२ ॥ त्रभाव है वह चिन्मात्र ही है पक्षपातसे रहित है ॥ भावार्थ-जीवके परनिमित्तसे अनेक परिणाम होते हैं और इसमें साधारण अनेक धर्म हैं तो भी असाधारण धर्म चित्स्वभाव है। वही सामान्य भावसे शुद्ध नयका विषय है उसीको प्रधानकर कथन है । सो इसके साक्षात् अनुभवके लिये ऐसा कहा है कि इसमें नयोंके अनेक पक्षपात उत्पन्न होते हैं । बद्ध अबद्ध, मूढ अमूढ, रागी विरागी, द्वेषी अद्वेषी, कर्ता अकर्ता, भोक्ता अभोक्ता, जीव अजीव, सूक्ष्म स्थूल, कारण अकारण, कार्य अकार्य, भाव अभाव, एक अनेक, शांत अशांत, नित्य अनित्य, वाच्य अवाच्य, नाना अनाना, चेत्य अचेत्य, दृश्य अदृश्य, वेद्य अवेद्य, भात अभात इत्यादि नयोंके पक्षपात हैं। सो तत्त्वका अनुभव करनेवाला पक्षपात नहीं करता नयोंको यथायोग्य विवक्षासे साधता है और चैतन्यको चेतनमात्र ही अनुभव करता है । इसी अर्थको संक्षेपकर काव्य कहते हैं-खेच्छा इत्यादि । अर्थ-जो तत्त्वका जाननेवाला पुरुष है वह पूर्व कहीहुई रीतिसे जिसमें बहुतविकल्पोंके जाल अपने आप उठते हैं ऐसा जो बड़ा नयपक्षरूपवन उसको उलंघकर जिसमें वीतरागभाव ही एकरस है ऐसे स्वभाववाले अनुभूतिमात्र आत्माके भावरूप अपने स्वरूपको प्राप्त होता है ॥ फिर कहते हैं-इंद्रजाल इत्यादि । अर्थ-तत्त्ववेदी ऐसा अनुभव करता है कि मैं चिन्मात्र तेजका पुंज हूं जिसका स्फुरायमान होना ही, बहुत बड़ी पुष्ट उठती चंचल जो विकल्परूप लहरें उनसे उछलता हुआ इन नयोंके प्रवर्तनरूप इंद्रजाल उस सबको तत्काल ही दूर करता है। भावार्थ-चैतन्यका अनुभव ऐसा है कि इसके होनेसे समस्त नयोंका विकल्परूप इंद्रजाल उसी समय विलाय जाता है ॥ १४२ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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