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________________ १९० रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । ज्ञानिनस्तु सम्यक्सपरविवेकेनात्यंतोदितविविक्तात्मख्यातित्वाद्यस्माद् ज्ञानमय एव मावः स्यात् तस्मिंस्तु सति स्वपरयो नात्वविज्ञानेन ज्ञानमात्रे खस्मिन्सुनिविष्टः पराभ्यां रागद्वेषाभ्यां पृथग्भूततया स्वरसत एव निवृत्ताहंकारः स्वयं किल केवलं जानात्येव न रज्यते न च रुष्यति तस्माद् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी परौ रागद्वेषावात्मानमकुर्वन्न करोति कर्माणि ॥ १२७॥ तस्माद् ज्ञानमयभावात् ज्ञानी जीवः कर्माणि न करोतीति । किं च, यथा स्तोकोप्यग्निः तृणकाष्ठराशि महांतमपि क्षणमात्रेण दहति तथा त्रिगुप्तिसमाविलक्षणो भेदज्ञानाग्निरंतर्मुहूर्तेनापि बहुभवसंचितं कर्मराशिं दहतीति ज्ञात्वा सर्वतात्पर्येण तत्रैव परमसमाधौ भावना कर्तव्येति भावार्थः ॥ १२७ ॥ त्माका प्रगटपना अत्यंत अस्त होगया है उसपनेकर अज्ञानमय ही भाव होता है । उस अज्ञानमय भावके होनेपर आत्माके और परके एकपनेका निश्चय आशयकर ज्ञानमात्र अपने आत्मस्वरूपसे भ्रष्ट हुआ परद्रव्यस्वरूप रागद्वेषोंसहित एक होके जिसके अहंकार प्रवर्त रहा है ऐसा हुआ अज्ञानी ऐसे मानता है कि 'मैं रागी हूं, द्वेषी हूं' इसतरह रागी द्वेषी होता है । उस रागादिस्वरूप अज्ञानमयभावसे अज्ञानी हुआ परद्रव्यस्वरूप जो रागद्वेष उनरूप अपनेको करता हुआ कोको करता है । और ज्ञानीके अच्छीतरह अपना परका भेदज्ञान होगया है इसलिये जिसके भिन्न आत्माका प्रगटपना अत्यंत उदय होगया है उस भावकर ज्ञानमय ही भाव होता है। उस भावके होनेसे अपना परका भेदज्ञानकर ज्ञानमात्र अपने आत्मस्वरूपमें ठहरा हुआ ज्ञानी वह परद्रव्यस्वरूप रागद्वेषसे जुदेपनेकर जिसके अपने रससे ही परमें अहंकार निवृत्त होगया है ऐसा हुआ निश्चयसे जानता ही है रागद्वेषरूप नहीं होता । इसलिये ज्ञानमय भावसे ज्ञानी हुआ परद्रव्यस्वरूप जो रागद्वेष उनरूप आत्माको नहीं करता कर्मोंको नहीं करता है ॥ भावार्थ-इस आत्माके क्रोधादिक मोहकी प्रकृतिका उदय आता है उसका अपने उपयोगमें रागद्वेषरूप मलिन स्वाद आता है, उसके भेदज्ञानके विना अज्ञानी हुआ ऐसा मानता है कि यह रागद्वेषमय मलिन उपयोग ही मेरा स्वरूप है यही मैं हूं ऐसे अज्ञानरूप अहंकारकर सहित हुआ कर्मोंको बांधता है। इसतरह अज्ञानमयभावसे कर्मबंध होता है। और जब ऐसा जानता है कि ज्ञानमात्र शुद्ध उपयोग तो मेरा स्वरूप है 'वह मैं हूं' ऐसा, तथा रागद्वेष हैं वे कर्मके रस हैं मेरा स्वरूप नहीं हैं । ऐसा भेदज्ञान होवे तभी ज्ञानी होता है तब अपनेको रागद्वेषभावरूप नहीं करता केवल ज्ञाता ही रहता है तब कर्मको नहीं करता आगे अगली गाथाके अर्थकी सूचनाका काव्य कहते हैं-ज्ञानमय इत्यादि । अर्थयहां प्रश्नरूप वचन है कि जो ज्ञानीके तो ज्ञानमय ही भाव होता है अन्य नहीं होता यह क्यों ? और अज्ञानीके अज्ञानमय ही सब भाव होते हैं अन्य नहीं यह कैसे ? ॥ १२७ ॥
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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