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________________ समयसारः। १८५ स्वभावः स्वयमेवास्तु तथा सति गरुडध्यानपरिणतः साधकः स्वयं गरुड इवाज्ञानस्वभावक्रोधादिपरिणतोपयोगः स एव स्वयं क्रोधादिः स्यादिति सिद्धं जीवस्य परिणामस्वभावत्वं । कोहभावेण एस दे बुद्धी अथ पूर्वदूषणभयात्स्वयमेवात्मा द्रव्यकर्मोदयनिरपेक्षो भावक्रोधरूपेण परिणत्येषा तव बुद्धिः हे शिष्य ! कोहो परिणामयदे जीवं कोहत्तमिदि मिच्छा तर्हि द्रव्यक्रोधः कर्ता जीवस्य भावक्रोधत्वं परिणामयति करोति यदुक्तं पूर्वगाथायां तद्वचनं मिथ्या प्राप्नोति । ततः स्थितं-घटाकारपरिणता मृत्पिडपुद्गलाः घट इव अग्निपरिणतायः पिंडोऽग्निवत् तथात्मापि क्रोधोपयोगपरिणतः क्रोधो भवति मानोपयोगपरिणतो मानो भवति मायोपयोगपरिणतो माया भवति लोभोपयोगपरिणतो लोभो भवतीति स्थिता सिद्धा जीवस्य स्वभावभूता परिणामशक्तिः । तस्यां परिणामशक्तौ स्थितायां स जीवः कर्ता यं परिणाममात्मनः करोति तस्य स एवोपादानकर्ता द्रव्यकर्मोदयस्तु निमित्तमात्रमेव । तथैव च स एव जीवो निर्विकारचिच्चमत्कारशुद्धभावेन परिणतः सन् सिद्धात्मापि भवति । किं च विशेषः-'जाव ण दि विसेसंतरं' इत्याद्यज्ञानिज्ञानिजीवयोः संक्षेपव्याख्यानरूपेण गाथाषट्रं यदुक्तं पूर्व पुण्यपाऐसी समझ है कि [आत्मा] आत्मा [स्वयं] अपने आप यह आत्मा [क्रोधभावेन] क्रोध भावकर [ परिणमते ] परिणमता है तो [ क्रोधः] क्रोध [जीवं ] जीवको [ क्रोधत्वं ] क्रोधभावरूप [परिणमयति ] परिणमाता है [ इति मिथ्या ] ऐसा कहना मिथ्या ठहरता है । इसलिये यह सिद्धांत है कि [ आत्मा ] आत्मा [क्रोधोपयुक्तः] क्रोधसे उपयोग सहित होता है अर्थात् उपयोग क्रोधाकाररूप परिणमता है तव तो [ क्रोधः ] क्रोध ही है [ मानोपयुक्तः] मानसे उपयुक्त होता है तब [ मान एव ] मान ही है ] मायोपयुक्तः] मायाकर उपयुक्त होता है तब [माया ] माया ही है [च ] और [ लोभोपयुक्तः ] लोभकर उपयुक्त होता है तब [ लोभः ] लोभ ही [भवति ] है । टीका-जीव, कर्ममें आप स्वयं नहीं बंधा हुआ क्रोधादि भावकर आप नहीं परिणमता तो वह जीव अपरिणामी ही होता है । ऐसा होनेपर संसारका अभाव आता है । अथवा ऐसा कोई कहे कि पुद्गलकर्म क्रोधादिक ही जीवको क्रोधादिक भावकर परिणमाते हैं इसलिये संसारका अभाव नहीं होसकता । ऐसा कहनेमें दो पक्ष होते हैं कि पुद्धलकर्म क्रोधादिक हैं वे जीवको अपने आप अपरिणमतेको परिणमाते हैं या परिणमतेको परिणमाते हैं ? । प्रथम तो आप नहीं परिणमता हो उसको परके परिणमानेका असमर्थपना है क्योंकि आपमें शक्ति नहीं तो परमें भी नहीं की जासकती । तथा स्वयं परिणमता हो वह परको परिणमानेवालेको नहीं चाहता क्योंकि वस्तुकी शक्ति परकी अपेक्षा नहीं करती। अन्यमें अन्य कोई नवीन शक्ति उत्पन्न नहीं कर सकता । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीव ही परिणमन स्वभावरूपस्वयमेव होवे । ऐसा होनेपर जैसे कोई मंत्रसाधक गरुडका ध्यान करता . उस गरुडभाव २४ समय.
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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