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________________ समयसारः । १७७ केवला एव कुर्वंति कर्माणि । ततः पुद्गलकर्मणामकर्ता जीवो गुणा एव तत्कर्तारस्ते तु पुद्गलद्रव्यमेव । ततः स्थितं पुद्गलकर्मणः पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ ॥१०९।११० १११।११२ ॥ न च जीवप्रत्यययोरेकत्वं; H जह जीवस्स अणण्णुवओगो कोहो वि तह जदि अणण्णो । जीवस्साजीवस्स य एवमणण्णत्तमावण्णं ॥ ११३ ॥ एवमिह जो दु जीवो सो चेव दु नियमदो तहाजीवो । अयमेयन्ते दोसो पच्चयणोकम्मकम्माणं ॥ ११४ ॥ अह दे अण्णो कोहो अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा । जह कोहो तह पच्चय कम्मं णोकम्ममवि अण्णं ॥ ११५ ॥ यथा जीवस्यानन्य उपयोगः क्रोधोपि तथा यद्यनन्यः । जीवस्य जीवस्य चैवमनन्यत्वमापन्नं ॥ ११३॥ एवमिह यस्तु जीवः स चैव तु नियमतस्तथाजीवः । अयमेकत्वे दोषः प्रत्ययनोकर्मकर्मणां ॥ ११४ ॥ अथ ते अन्यः क्रोधोऽन्यः उपयोगात्मको भवति चेतयिता । यथा क्रोधस्तथा प्रत्ययाः कर्म नोकर्माप्यन्यत् ॥ ११५ ॥ यदि यथा जीवस्य तन्मयत्वाजीवादनन्य उपयोगस्तथा जडः क्रोधोप्यनन्य एवेति प्रतिशुद्धनिश्चयेन तेषां कर्मणां जीवः कर्ता न भवति । गुणस्थानसंज्ञिताः प्रत्यया एव कर्म कुर्वं - तीति सम्मतमेव । एवं शुद्धनिश्चयेन प्रत्यया एव कर्म कुर्वतीति व्याख्यानरूपेण गाथाचतुष्टयं गतं ॥। १०९ । ११० । १११ । ११२ ॥ अथ न च जीवप्रत्यययोरेकत्वमेकांतेनेति कथवेदता हुआ जीव आप ही मिथ्यादृष्टि होकर पुद्गलकर्मको करता है ? उसका समाधान ऐसा है कि यह अज्ञान है क्योंकि आत्मा भाव्यभावक भावके अभाव से मिथ्यात्वादि पुद्गलकमका भोक्ता भी निश्चयकर नहीं है तो पुद्गलकर्मका कर्ता कैसे हो सकता है । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि पुद्गलद्रव्यमयी सामान्य चार प्रत्यय उनके विशेष भेदरूप तेरह प्रत्यय वे गुणशब्दसे कहे हैं अर्थात् उनका नाम गुणस्थान है वे ही केवल कर्मों को करते हैं । इसकारण जीव पुद्गलकर्मोंका अकर्ता है और वे गुणस्थान ही उनके क्योंकि वे गुण पुद्गलद्रव्यमयी ही हैं । इससे पुद्गलकर्मका पुद्गलद्रव्य ही एक कर्ता है यह सिद्ध हुआ || भावार्थ - "अन्यद्रव्यका अन्यद्रव्य कर्ता नहीं होता" इस न्यायसे आत्मद्रव्य पुद्गलद्रव्यकर्मका कर्ता नहीं है बंधके कर्ता तो योगकषायादिकसे उत्पन्न हुए गुणस्थान हैं वे वास्तव में अचेतन पुगलमयी हैं इसलिये वे पुद्गलकर्मके कर्ता हैं, जीवको कर्ता मानना अज्ञान है ।। १०९ । ११० । १११ । ११२ ।। कर्ता है आगे कहते हैं कि जीवके और उन प्रत्ययोंके एकपना भी नहीं है; - [ पथा ] २३ समय ०
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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