SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 177
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १६४ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । व्याप्यव्यापकभावेन न तस्य कर्तास्ति ॥ ९९ ॥ निमित्तनैमित्तकभावेनापि न कर्तास्ति; जीवो ण करेदि घडं णेव पडं णेव सेसगे दव्वे । जोगुवओगा उप्पादगा य तेसिं हवदि कत्ता ॥१०॥ जीवो न करोति घटं नैव पटं नैव शेषकानि द्रव्याणि । योगोपयोगावुत्पादकौ च तयोर्भवति कर्ता ॥ १० ॥ यत्किल घटादि क्रोधादि वा परद्रव्यात्मकं कर्म तदयमात्मा तन्मयत्वानुषंगाद व्याप्यव्यापकभावेन तावन्न करोति नित्यकर्तृत्वानुषंगानिमित्तकनैमित्तकभावेनापि न तत्कुर्यात् । अनित्यौ योगोपयोगावेव तत्र निमित्तत्वेन कर्तारौ योगोपयोगयोस्त्वात्मविपरद्रव्याणामुपादानरूपेण कर्ता न भवतीत्यभिप्रायः॥९९॥ अथ न केवलमुपादानरूपेण कर्ता न भवति किंतु निमित्तरूपेणापीत्युपदिशति;-जीवो ण करेदि घडं व पडं व सेसगे व्वे न केवलमुपादानरूपेण निमित्तरूपेणापि जीवो न करोति घटं न पटं नैव शेषद्रव्याणि । कुत इति चेत् ? नित्यं सर्वकालं कर्मकर्तृत्वाननुषंगात् । कस्तर्हि करोति ? जोगुवओगा उप्पादगा य आत्मनो विकल्पव्यापाररूपौ विनश्वरौ योगोपयोगावेव तत्रोत्पादकौ भवतः । सो तेसिं हवदि कत्ता सुखदुःखजीवितमरणादिसमताभावनापरिणताभेदरत्नत्रयलक्षणभेबड़ा दोष आवे । इसलिये अन्यद्रव्यका कर्ता अन्यद्रव्यको कहना अच्छा नहीं है ॥९९॥ ___ आगे कोई जानेगा कि व्याप्यव्यापकभावकर तो कर्ता नहीं है तौभी निमित्तनैमित्तिकभावकर तो कर्ता होगा उसको निषेधते हैं कि निमित्तनैमित्तिकभावकर भी कर्ता नहीं है;-[जीवः ] जीव [ घटं] घड़ेको [न करोति ] नहीं करता [एव ] और [ पटं ] पटको भी [न] नहीं करता [शेषकाणि ] शेष [ द्रव्याणि ] द्रव्योंको भी [ नैव ] नहीं करता [ योगोपयोगौ च ] जीवके योग और उपयोग ये दोनों [ उत्पादकौ ] घटादिकके उत्पन्न करनेके निमित्त हैं [ तयोः ] उन दोनों योगउपयोगोंका यह जीव [ कर्ता] कर्ता [भवति ] है ॥ टीका-जो कुछ घटादिक तथा क्रोधादिक परद्रव्यस्वरूप प्रगट कर्म देखे जाते हैं उनको यह आत्मा व्याप्यव्यापकभावकर नहीं करता । जो ऐसें करे तो उनसे तन्मयपनेका प्रसंग आये । तथा निमित्तनैमित्तिकभावकर भी नहीं करता। क्योंकि ऐसे करे तो सदा सब अवस्था ओंमें कर्तापनेका प्रसंग आजाय । इन कर्मोंको कोंन करता है सो कहते हैं। इस आत्माके योग (मनवचनकायके निमित्तसे प्रदेशोंका चलना) और उपयोग (ज्ञानका कपायोंसे उपयुक्त होना) ये दोनो अनित्य हैं सब अवस्थाओंमें व्यापक नहीं हैं। वे उन घटादिकके तथा क्रोधादिपरद्रव्यस्वरूप कर्मों के निमित्तमात्रकर कर्ता कहे जाते हैं। योग तो आत्माके प्रदेशोंका चलनरूप व्यापार है और उपयोग आत्माके चैतन्यका रागादि
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy