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________________ १५६ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । भावापन्नयोः परात्मनोः सामानाधिकरण्येनानुभवनाद्धर्मोहमधर्मोहमाकाशमहं कालोहं पुद्गलोहं जीवांतरमहमित्यात्मनो विकल्पमुत्पादयति । ततोयमात्मा धर्मोहमधर्मोहमाकाशमहं कालोहं पुद्गलोहं जीवांतरमहमिति भ्रांत्या सोपाधिना चैतन्यपरिणामेन परिणमन् तस्य सोपाधिचैतन्यपरिणामत्वरूपस्यात्मभावस्य कर्ता स्यात् । ततः स्थितं कर्तृत्वमूलमज्ञानं ॥९५॥ एवं पराणि व्वाणि अप्पयं कुणदि मंदबुद्धीओ। अप्पाणं अवि य परं करेइ अण्णाणभावेण ॥ ९६ ॥ एवं पराणि द्रव्याणि आत्मानं करोति मंदबुद्धिस्तु । आत्मानमपि च परं करोति अज्ञानभावेन ॥ ९६ ॥ यत्किल क्रोधोहमित्यादिवद्धर्मोहमित्यादिवच्च परद्रव्याण्यात्मीकरोत्यात्मानमपि परद्रइति । अत्र परिहारः । धर्मास्तिकायोयमिति योसौ परिछित्तिरूपविकल्पो मनसि वर्तते सोप्युपचारेण धर्मास्तिकायो भण्यते । यथा घटाकारविकल्पपरिणतिज्ञानं वट इति । तथा तद्धर्मास्तिकायोयमित्यादिविकल्पः यदा ज्ञेयतत्त्वविचारकाले करोति जीवः तदा शुद्धात्मस्वरूपं विस्मरति तस्मिन्विकल्पे कृते सति धर्मोहमिति विकल्प उपचारेण घटत इति भावार्थः । स्थितं शुद्धात्मसंवित्तेरभावरूपमज्ञानं कर्मकर्तृत्वस्य कारणं भवति ॥ ९५॥ एवं एवं पूर्वोक्तगाथाद्वयकथितप्रकारेण पराणि व्वाणि अप्पयं कुणदि क्रोधोहमित्यादिवद्धर्मास्तिकायोहमित्यादिवच्च तथा अविशेष जाननेकर और अविशेष रति (लीनता ) कर समस्त भेदोंका लोपकर ज्ञेयज्ञायक भावको प्राप्त जो धर्मादि द्रव्य उनको अपना और उनका एक आधारके अनुभव करनेसे ऐसा मानता है कि मैं धर्मद्रव्य हूं मैं अधर्मद्रव्य हूं मैं आकाशद्रव्य हूं मैं कालद्रव्य हूं मैं पुद्गलद्रव्य हूं मैं अन्य जीव भी हूं ऐसें भ्रमकर उपाधिसहित अपना जो चैतन्य परिणाम उसकर परिणमता उस उपाधिसहित चैतन्यपरिणामरूप अपने भावका कर्ता होता है ॥ भावार्थ-यह आत्मा अज्ञानसे धर्मादिद्रव्यमें भी आपा मानता है सो उस अपने अज्ञानरूप चैतन्यपरिणामका आप कर्ता होता है। यहां कोई पूछे कि पुद्गल और अन्य जीव तो प्रवृत्तिमें दीखते हैं उनमें तो अज्ञानसे आपा मानना ठीक है परंतु धर्मद्रव्य अधर्मद्रव्य आकाशद्रव्य कालद्रव्य तो देखनेमें भी नहीं आते उनमें आपा मानना कैसे कहा ? उसका समाधान-धर्मादिकका भी लक्षण अनुभवमें आता है । धर्म अधर्मका तो गतिहेतुपना स्थितिहेतुपना है उनका गमन करना ठहरना जिससे होता है उसमें ममत्वबुद्धि होती है । और आकाशके अवगाहरूप क्षेत्रमें ममत्त्व होता है । और कालके समय मुहूर्तआदिमें मरना जीना आदि कार्य होता है उसमें ममत्वबुद्धि होती है ऐसा जानना ॥ ९५ ॥ __ आगे कहते हैं कि इस हेतुसे कर्तापनेका मूलकारण अज्ञान ठहरा;-[एवं तु] ऐसे पूर्वकथितरीतिसे [ मंदबुद्धिः ] अज्ञानी [अज्ञानभावेन ] अज्ञानभावकर
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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