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________________ १५२ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । नात्परस्परविशेषानिर्ज्ञाने सत्येकत्वाध्यासात् शीतोष्णरूपेणैवात्मना परिणमितुमशक्येन रागद्वेषसुखदुःखादिरूपेणाज्ञानात्मना परिणममानो ज्ञानस्याज्ञानत्वं प्रकटीकुर्वन्वयमज्ञानमयीभूत एषोहं रज्ये इत्यादिविधिना रागादेः कर्मणः कर्ता प्रतिभाति ॥ ९२ ॥ ज्ञानात्तु न कर्म प्रभवतीत्याह; परमप्पाणमकुव्वं अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो। सो णाणमओ जीवो कम्माणमकारओ होदि ॥९३॥ परमात्मानमकुर्वन्नात्मानमपि च परमकुर्वन् । स ज्ञानमयो जीवः कर्मणामकारको भवति ॥ ९३ ॥ अयं किल ज्ञानादात्मा परात्मनोः परस्परविशेषनिर्ज्ञाने सति परमात्मानमकुर्वन्नात्मानं च परमकुर्वन्स्वयं ज्ञानमयीभूतः कर्मणामकर्ता प्रतिभाति । तथाहि-तथाविधानुभवसंपादउदयागतपुद्गलपरिणामावस्थायास्तन्निमित्तसुखदुःखानुभवस्य चैकत्वाध्यवसायारोपात् परद्रव्यात्मनोः समस्तरागादिविकल्परहितस्वसंवेदनज्ञानाभावाद्भेदमजानन्नहं सुखी दुःखीति प्रकारेण परिणमत्कर्मणां कर्ता भवतीति भावार्थः ॥ ९२ ॥ अथ वीतरागस्वसंवेदनज्ञानात्सकाशात्कर्म न प्रभवतीत्याह;-परं परं परद्रव्यं बहिर्विषये देहादिकमभ्यंतरे रागादिकं भावकर्मद्रव्यकर्मरूपं वा अप्पाणमकुव्वी भेदविज्ञानबलेनात्मानमकुर्वन्नात्मसंबंधमकुर्वन् अप्पाणं पि य परं अकुव्वंतो शुद्धद्रव्यगुणपर्यायस्वभावं निजात्मानं च परमकुर्वन् सो णाणमओ जीवो रागद्वेष सुखदुःखादिरूप भी अपनेकर परिणमनेका असमर्थपना है तौभी रागद्वेषादिक पुद्गलपरिणामकी अवस्थाको उसके अनुभवका निमित्तमात्र होनेसे अज्ञानस्वरूप राग. द्वेषादिरूप परिणमता अपने ज्ञानके अज्ञानपनेको प्रगटकरता आप अज्ञानी हुआ “यह मैं रागी हूं" इत्यादि विधानकर रागादिक कर्मका कर्ता प्रतिभासता है ॥ भावार्थरागद्वेषसुखदुःखादि अवस्था पुद्गलकर्मके उदयका स्वाद है सो यह पुद्गलकर्मसे अभिन्न है आत्मासे अत्यंत भिन्न है जैसे शीत उष्णपना । आत्माको अज्ञानसे इसका भेदज्ञान नहीं है इसलिये ऐसा जानता है कि यह स्वाद मेरा ही है । क्योंकि ज्ञानकी स्वच्छता ऐसी ही है कि रागद्वेषादिका स्वाद शीत उष्णकी तरह ज्ञानमें प्रतिबिंबित होता है तब ऐसा मालूम होता है कि मानों ये ज्ञान ही हैं । इसकारण ऐसे अज्ञानसे इस अज्ञानी जीवके इनका कर्तापना भी आया । क्योंकि इसके ऐसी मान्य हुई रागी हूं द्वेषी हूं क्रोधी हूं मानी हूं इत्यादि । इसतरह कर्ता होता है ॥ ९२ ॥ आगे कहते हैं कि ज्ञानसे कर्म नहीं उत्पन्न होता;-[जीवः ] जो जीव [आत्मानं] अपनको [परं] पर [ अकुर्वन् ] नहीं करता [च ] और [परं] परको [आत्मानं अपि ] अपना भी [ अकुर्वन् ] नहीं करता [ सजीवः] वह जीव [ज्ञानमयः] ज्ञानमय है [कर्मणां] काँका [अकारकः ] करनेवाला नहीं
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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