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________________ १३४ राक्चन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । तथा परिणमति न तथोत्पद्यते । किं तु प्राप्यं विकार्य निर्वयं च व्याप्यलक्षणं स्वभावं कर्म स्वयमंतापकं भूत्वादिमध्यांतेषु व्याप्य तमेव गृह्णाति तथैव परिणमति तथैवोत्पद्यते च । ततः प्राप्यं विकार्य निर्वत्यै च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य जीवपरिणाम स्वपरिणामं स्वपरिणामफलं चाजानतः पुद्गलद्रव्यस्य जीवेन सह न कर्तृकर्मभावः । “ज्ञानी जानन्नपीमां स्वपरपरिणतिं पुद्गलश्चाप्यजानन् व्याप्तृव्याप्यत्वमंतः कलयितुमसहो नित्यमत्यंतभेदात् । अज्ञानात्कर्तृकर्मभ्रममतिरनयोर्भाति तावन्न यावत् विज्ञाउप्पजदि ण परव्वपज्जाए यथा जीवो निश्चयेनानंतसुखादिस्वरूपं त्यक्त्वा पुद्गलद्रव्यरूपेण न परिणमति न च तन्मयत्वेन गृह्णाति न तत्पर्यायेणोत्पद्यते । पुग्गलदव्वं पि तहा तथा पुद्गलद्रव्यमपि स्वयमंतापकं भूत्वा मृत्तिकाद्रव्यकलशरूपेणेव चिदानंदैकलक्षणजीवस्वरूपेण न परिणमति न च जीवस्वरूपं तन्मयत्वेन गृह्णाति न च जीवपर्यायेणोत्पद्यते । तर्हि किं करोति परिणमइ सएहिं भावेहिं परिणमति स्वकीयैर्वर्गादिस्वभावैः परिणामैर्गुणैर्धम्मैंमता है, [न गृह्णाति ] उसको ग्रहण भी नहीं करता और [न उत्पद्यते ] न उत्पन्न होता है क्योंकि [वकैः भावैः] अपने भावोंसे ही [परिणमति ] परिणमता है। टीका-जिसकारण पुद्गल द्रव्य जीवके परिणामको अपने परिणामको तथा अपने परिणामके फलको नहीं जानता हुआ वर्तता है । परद्रव्यके परिणाम रूप कर्मको मृत्तिका कलशकी तरह आप अंतर्व्यापक होके आदि मध्य अंतमें व्यापकर नहीं ग्रहण करता उसीतरह परिणमता भी नहीं है तथा उपजताभी नहीं है परंतु प्राप्य विकार्य निर्वत्यरूप व्याप्य लक्षण अपने स्वभावरूप कर्मको अंतर्व्यापक होके आदि मध्य अंतमें व्याप्य उसीको ग्रहण करता है उसीतरह परिणमता है तथा उसीतरह उपजता है । इसकारण प्राप्य विकार्य निवर्त्यरूप व्याप्य लक्षण परद्रव्यके परिणामस्वरूप कर्मको नहीं करता जो पुद्गलद्रव्य वह जीवके परिणामको, अपने परिणामको तथा अपने परिणामके फलको नहीं जानता उसका जीवके साथ कर्तृकर्मभाव नहीं है । भावार्थ-कोई जाने कि पुद्गल जड़ है सो किसीको जानता नहीं उसका जीवके साथ कर्तृकर्म भाव होगा सो यह भी नहीं है । परमार्थसे परद्रव्यके साथ किसीके कर्तृकर्मभाव नहीं है । अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं। ज्ञानी इत्यादि । अर्थ-ज्ञानी तो अपनी और परकी दोनोंकी परिणतिको जानता हुआ प्रवृत्त होता है तथा पुद्गलद्रव्य अपनी और परकी दोनों ही परिणतियोंको नहीं जानता हुआ प्रवर्तता है इसलिये वे दोनों परस्पर अंतरंग व्याप्यव्यापक भावको प्राप्त होनेको असमर्थ हैं क्योंकि दोनों भिन्न द्रव्य हैं सदाकाल उनमें अत्यंत भेद है । ऐसा होनेपर इनके कर्तृकर्मभाव मानना भ्रमबुद्धि है । सो यह जबतक इन दोनोंमें करोंतकी तरह निर्दय होके उसीसमय भेदको उपजाके भेदज्ञान प्रकाशवाला ज्ञान प्रकाशित नहीं होता तभीतक है ।।
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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