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________________ १०८ रायचन्द्रजैनशास्त्रमालायाम् । यद्वर्णादयो भावा न जीव इति ॥ ६३ ॥ ६४॥ एकं च दोणि तिणि य चत्तारि य पंच इंदिया जीवा। . वादरपजत्तिदरा पयडीओ णामकम्मस्स ॥६५॥ एदेहि य णिव्वत्ता जीवट्ठाणाउ करणभूदाहिं । पयडीहिं पुग्गलमइहिं ताहिं कहं भण्णदे जीवो ॥६६॥ एकं वा द्वे त्रीणि च चत्वारि च पंचेन्द्रियाणि जीवाः । बादरपर्याप्तेतराः प्रकृतयो नामकर्मणः ॥६५॥ एताभिश्च निवृत्तानि जीवस्थानानि करणभूताभिः । प्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिस्ताभिः कथं भण्यते जीवः ॥६६॥ निश्चयतः कर्मकरणयोरभिन्नत्वात् यद्येन क्रियते तत्तदेवेति कृत्वा यथा कनकपत्रं कनकेन क्रियमाणं कनकमेव न त्वन्यत् । तथा जीवस्थानानि बादरसूक्ष्मैकेंद्रियद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियपर्याप्तापर्याप्ताभिधानाभिः पुद्गलमयीभिः नामकर्मप्रकृतिभिः क्रियमाणानि पुगल वतीति भावार्थः ॥ ६३ ॥ ६४ ॥ एवं जीवस्य वर्णादितादात्म्ये सति जीवाभावदूषणद्वारेण गाथात्रयं गतं । अथैवं स्थितं बादरसूक्ष्मैकेंद्रियादिसंज्ञिपंचेंद्रियपर्यंतचतुर्दशजीवस्थानानि शुद्धनिश्चयेन जीवस्वरूपं न भवंति तथा देहगता वर्णादयोपीत्यावेदयति;-एकद्वित्रिचतुःपंचेंद्रियसंझ्यसंज्ञिबादरपर्याप्तेतराभिधानाः प्रकृतयो भवंति । कस्य संबंधिन्यो नामकर्मण इति । अथ–एताभिरमूर्त्तातींद्रियनिरंजनपरमात्मतत्त्वविलक्षणाभिर्नामकर्मप्रकृतिभिः पुद्गलमयीभिः पूनिश्चय है ॥ ६३।६४ ॥ __ आगे इसी अर्थका विशेष कहते हैं;-[ एकं वा] एकेंद्रिय [ दे] द्वींद्रिय [त्रीणि च ] त्रींद्रिय [ चत्वारि च ] चतुरिंद्रिय [पंचेंद्रियाणि] पंचेंद्रिय [जीवाः] जीव तथा [ बादपर्याप्तेतराः] बादर सूक्ष्म पर्याप्त अपर्याप्त ये जीव हैं वे [नामकर्मणः ] नामकर्मकी [ प्रकृतयः] प्रकृतियां हैं [ एताभिः च] इन प्रकृतियोंकर ही [ करणभूताभिः ] करणस्वरूप होकर [ जीवस्थानानि ] जीवसमास [निवृत्तानि ] रचेगये हैं [ताभिः] उन [ पुद्गलमयीभिः] पुद्गलमय [प्रकृतिभिः ] प्रकृतियोंसे रचेहुएको [ जीवः ] जीव [ कथं] कैसे [ भण्यते ] कह सकते हैं । टीका-निश्चयनयकर कर्म और करणमें अभेदभाव है इस न्यायकर जो जिसकर कियाजाय वह वही है। ऐसा होनेपर जैसे सुवर्णका पत्र सुवर्णकर किया सो वह पत्र सुवर्ण ही है अन्य तो कुछ नहीं उसीतरह ये जीवस्थान हैं वे बादर सूक्ष्म एकेंद्रिय द्वींद्रिय त्रींद्रिय चतुरिंद्रिय पंचेंद्रिय वे सब पर्याप्त अपर्याप्त हैं वे सभी पुद्गलमयी नामकर्मकी प्रकृतियां हैं वे करणरूप हैं उनकर किये गये हैं इसलिये पुद्गल ही हैं वे जीव नहीं हैं । तथा नामकर्मकी प्रकृतियोंके पुद्गलमयपना आगममें प्रसिद्ध है । और जो प्रत्यक्ष देखने में आनेवाले शरीरआदि मूर्तीकभाव हैं वे पुद्गल कर्मप्रकृतियों के कार्य
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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