SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 112
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समयसारः । क्षपकसूक्ष्मसांपरायोपशमकक्षपकोपशांतकषायक्षीणकषायसयोगकेवल्ययोगकेवलिलक्षणानि गुणस्थानानि तानि सर्वाण्यपिन संति जीवस्य पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात् । "वर्णाद्या वा रागमोहादयो वा भिन्ना भावाः सर्व एवास्य पुंसः । तेनैवांतस्तत्त्वतः पश्यतोऽमी नो दृष्टाः स्युद्देष्टमेकं परं स्यात् ॥३७॥" ॥ ५० ॥५१॥५२॥५३॥५४॥५५॥ ननु वर्णादयो यद्यमी न संति जीवस्य तदा तत्रांतरे कथं संतीति प्रज्ञाप्यते इति चेत् ; ववहारेण दु एदे जीवस्स हवंति वण्णमादीया। गुणठाणंताभावा ण दु केई णिच्छयणयस्स ॥५६॥ व्यवहारेण त्वेते जीवस्य भवंति वर्णाद्याः । गुणस्थानांता भावा न तु केचिन्निश्चयनयस्य ॥ ५६ ॥ इह हि व्यवहारनयः किल पर्यायाश्रितत्वाजीवस्य पुद्गलसंयोगवशादनादिप्रसिद्धवंधपर्यायस्य कुसुंभरक्तस्य कापासिकवासस इवौपाधिकं भावमवलंब्योत्प्लवमानः परभाव परस्य जीवाः इत्युक्ताः अत्र पुनरध्यात्मशास्त्रे शुद्धनिश्चयनयेन निषिद्धा इत्युभयत्रापि नयविभागविवक्षया नास्ति विरोध इति वर्णाद्यभावस्य विशेषव्याख्यानरूपेण सूत्रषटुं गतं ॥ ५० ॥ ५१ ॥ ५२ ॥ ५३ ॥ ५४ ॥ ५५ ॥ अथ यदुक्तं पूर्व सिद्धांतादौ जीवस्य वर्णादयो व्यवहारेण कथिताः अत्र तु प्राभृतग्रंथे निश्चयनयेन निषिद्धाः तमेवार्थं दृढयति;-व्यवहारनयेन त्वेते प्रकार ये सभी पुद्गलद्रव्यके परिणाममय भाव हैं वे सब जीवके नहीं हैं । जीव तो परमार्थसे चैतन्य शक्तिमात्र है ॥ अब इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं । वर्णाद्या इत्यादि । अर्थ-वर्णादिक अथवा रागमोहादिक कहेहुए सभी भाव इस पुरुष ( आत्मा ) से भिन्न हैं इसीकारण अंतर्दृष्टिसे देखनेवालेको ये सब नहीं दीखते केवल एक चैतन्यभावस्वरूप अभेदरूप आत्मा ही दीखता है । भावार्थ-परमार्थनय अभेद ही है इसलिये उस दृष्टिसे देखनेपर भेद नहीं दीखता, उस नयकी दृष्टिमें चैतन्यमात्र पुरुष (आत्मा) ही दीखता है इस कारण वे वर्णादिक तथा रागादिक पुरुषसे भिन्न ही हैं। वर्णको आदि लेकर गुणस्थानपर्यंत भावोंका स्वरूप विशेषतासे जानना हो तो गोमटसार आदि ग्रंथोंसे जान लेना ॥ ५० । ५१ । ५२ । ५३ । ५४ । ५५ ॥ आगे शिष्य पूछता है कि वर्णादिक भाव जो कहे वे यदि जीवके नहीं है तो अन्य सिद्धांतग्रंथों में ये जीवके हैं। ऐसा क्यों कहा गया ? उसका उत्तर गाथामें कहते हैं;[एते] ये [वर्णाद्याः गुणस्थानांताः भावाः] वर्णआदि गुणस्थानपर्यंत भाव कहे गये हैं वे [ व्यवहारेण तु ] व्यवहार नयसे तो [जीवस्य भवंति ] जीवके ही होते हैं, इसलिये सूत्रमें कहे हैं [तु] परंतु [ निश्चयनयस्य ] निश्चयनयके मतसे [ केचित् न ] इनमेंसे कोई भी जीवके नहीं है ॥ टीका-यहांपर व्यवहारनय, पर्यायाश्रित होनेसे पुद्गलके संयोगवश अनादिकालसे प्रसिद्ध जिसकी बंध
SR No.022398
Book Titlesamaysar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManoharlal Shastri
PublisherJain Granth Uddhar Karyalay
Publication Year1919
Total Pages590
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy