SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 75
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पूर्व क्षण में ही शक्ति नहीं है, व्यवहित पूर्व क्षणों में भी शक्ति विद्यमान है ।' शक्ति होने पर भी तब तक अर्थ की प्रमा होती नहीं जब तक उपयोग नहीं होता । स्व पर व्यवसायी ज्ञान ही उपयोग है, उपयोग के अव्यवहित उत्तर क्षण में ही अर्थ का प्रकाशन होता है। लब्धीन्द्रिय शक्ति रूप है, वह करण है, परन्तु उपयोग के पीछे अर्थ को प्रकाशित करतो है इस रीति से लब्धीन्द्रिय अर्थ की प्रभा में व्यवहित कारण है। जन तर्क के अनुसार व्यवहित कारण प्रमाण नहीं हो सकता। जो व्यवहित कारण भी प्रमाण हो जाय तो द्रव्येन्द्रिय भी प्रमाण रूप हो जानी चाहिये, और चक्षु आदि द्रव्येन्द्रिय जो प्रमाण हो तो अज्ञानात्मक वस्तु प्रमाणरूप हो जायेगी। जैन मत में प्रमाण ज्ञानरूप है इसीलिये स्व पर व्यवसायी ज्ञान प्रमाण का लक्षण है । अज्ञानात्मक होने से द्रव्येन्द्रिय प्रमाण रूप नहीं है । उपयोगात्मक न होने से लब्धीन्द्रिय प्रमाण नहीं कही जा सकती। इस पक्ष में दूसरा दोष देते हैं मूलम्-शक्तीनां परोक्षत्वाभ्युपगमेन करणफलज्ञानयोः परोक्षप्रत्यक्षत्वाभ्युपगमे प्रभाकरमतप्रवेशाच । अर्थ-शक्तियां परोक्ष रूप मानी जाती है, इसलिये करण और फल ज्ञान को जो परोक्ष और प्रत्यक्ष रूप में स्वीकार किया जाय तो प्रभाकर के मत में प्रवेश होजायगा। विवेचना-अग्नि आदि में दाह आदि के लिये अनुकूल शक्तियां हैं वे प्रत्यक्ष नहीं हैं। जब कोई अग्नि को देखता है तब उसको अग्नि ही दिखाई देती है, पर दाह शक्ति का
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy