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________________ ६१ भासः, यथा बभूव भवति भविष्यति सुमेरुरित्यादयः शद्धा भिन्नमेवार्थमभिदधति, भिन्नकालशब्दत्वात्तादृक् सिद्धान्यशद्रवदिति । अर्थः- काल आदि के भेद से अर्थ के भेद को ही माननेवाला और अभेद का निषेध करनेवाला शब्दाभास है । जैसे सुमेरु था, है, होगा इत्यादि शब्द भिन्न अर्थ को ही कहते हैं भिन्न काल के वाचक शब्द होने से इस प्रकार के सिद्ध अन्य शब्दों के समान । " विवेचनाः- - एक अर्थ का तीन कालों के साथ संबंध रहता इसलिए काल का भेद होने पर भी अर्थ का सर्वथा भेद नहीं होता । जिस पर्याय का एक क्षण के साथ सम्बन्ध है उसी पर्याय का अन्य क्षणों के साथ सम्बन्ध नहीं रह सकता । द्रव्य अनेक क्षणों के साथ भी सम्बन्ध रख सकता है । वह काल के भिन्न होने पर भी अभिन्न रहता है। इसी प्रकार वस्तु का स्वरूप काल के भेद में भी भिन्न और अभिन्न रहता है । इस तत्त्व की अपेक्षा करके शब्द नय कहने लगता है, पूर्व काल में जो सुमेरु था वह ही अब नहीं है । अब जो सुमेरु है वह भूतकाल के सुमेरु से सर्वथा भिन्न है । जब कोई कहता है 'देवदत्त गया, यज्ञदत्त पढता है, विष्णु मित्र भोजन करेगा' तब देवदत्त आदि अर्थ भिन्न होते हैं। भूतकाल की गगन क्रिया के साथ देवदश्त का सम्बन्ध है, वर्तमान काल की पठन क्रिया के साथ यज्ञदत्त का सम्बन्ध है, भावी काल की भोजन क्रिया के साथ विष्णुमित्र का सम्बन्ध है । यहां पर भिन्न कालों के साथ सम्बन्ध होने पर देवदत्त आदि अर्थों में भेद है ! सुमेरु का भी जब भिन्न काल के साथ सम्बन्ध हो तो भेद मानना चाहिए। इस प्रकार एकान्तवाद का आश्रय लेकर शब्दनय काल भेदसे नहा अर्थ एक है वहां भी भेद मानने लगता है । देवदत्त आदि अर्थ भन्न थे और उनका भिन्न काल की क्रियाओं के
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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