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________________ ५६ प्रमाण नहीं मिलता, इस दशा में अनुमान होता है, शरीर में ज्ञान सुख आदि जिन गुणों का संवदेन होता है, वे गुण वास्तव में शरीर के नहीं हैं। शरीर के अन्दर प्रवेश करने वाला कोई सूक्ष्म द्रव्य है जिसके गुण ज्ञान सुख आदि है पर शरीर के गुण होकर प्रतीत होते हैं। यदि ज्ञान सुख आदि शरीर के गुण स्वाभाविक होते तो जब तक शरीर है तब तक अवश्य रहते । प्राणों के निकल जाने पर रूप गन्ध आदि गुण शरीर में दिखाई देते हैं और ज्ञान सुख आदि का अनुभव नहीं होता । तेज के निकल जाने पर पानी शीतल हो जाता है, शरीर भी किसी अन्य द्रव्य के निकल जाने पर चेतना और सुख आदि से शून्य हो जाता है। शरीर के अन्दर प्रवेश करने वाला और बाहर जाने पाला द्रव्य आत्मा है, ज्ञान सुख-आदि उसके गुण हैं। परीक्षकों के प्रमाणों पर आश्रित होने पर भी भात्मा आदि के व्यवहार को चार्वाक अयुक्त मानता है, इसलिए उसका मत व्यवहाराभास है। मूलम्:-वर्तमानपर्यायाभ्युपगन्ता सर्वथा द्रव्यापलापी ऋजुत्राभान :, यथा ताथागतं मतम् । . अर्थः-वर्तमान काल के पर्याय को स्वीकार करने वाला और द्रव्य का सर्वथा निषेध करने वाला अभिप्राय ऋजुसूत्राभास है जिस प्रकार बौद्ध मत। विवेचना:-अर्थों का सम्बन्ध तीन कालों के साथ अनुभव से सिद्ध है। जिस अर्थ का ज्ञान अभी होता है वह वर्तमान काल के पीछे भी प्रतीत होता है । ज्ञाता समझता है पहले देखा था इस लिए यह अर्थ भूत काल में था । अब देख रहा हूँ इसलिए वर्तमान काल में भी है। इसके अनन्तर भी दिखाई देता है इसलिए भावी काल के साथ भी इसका सम्बन्ध है। अतः कालों के भिन्न होने पर भी अर्थ एक है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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