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________________ अर्थ सत्य नहीं है। कुछ दशाओं में शब्द अर्थको न होने पर भी बतला देता है इस कारण समस्त अर्थों को एकान्त रूप से मिथ्या मान लेने के कारण शब्दाद्वैतवाद भी संग्रहाभास है। प्रमाणों के द्वारा ज्ञान अथवा ब्रह्म अथवा शब्द जिस प्रकार सिद्ध होते हैं इस प्रकार अन्य जड चेतन भी सिद्ध होते हैं केवल एक को लेकर उसी में सब का संग्रह करना युक्त नहीं है। अद्वैतवाद जिस प्रकार संग्रहाभास है इस प्रकार सांख्यों का प्रकृतिवाद भी संग्रहाभास है । सांख्य लोग किसी एक तत्त्व को नहीं मानते उनके अनुसार मूल भूत तत्त्व दो हैं प्रकृति और पुरुष । प्रकृति जड है और पुरुष चेतन । समस्त संसार प्रकृति रूप है, पृथिवी जल आदि जितने भी बाह्य अर्थ हैं वे सब प्रकृति के परिणाम हैं। प्रकृति कारण है कार्य उससे अभिन्न है । कार्य कारणों में विद्यमान है और उसका कारण के साथ अभेद है। यहां पर एकान्तवाद का आश्रय लेकर साख्य कारण में कार्य का सर्वथा सत्त्व और कारण के साथ कार्य का सर्वथा अभेद मान लेते हैं। सर्वथा अभेद मान लेने के कारण समस्त जड अर्थ को प्रकृति रूप कहते हैं इस प्रकार का सत्कार्यवाद प्रमाणों के विरुद्ध है । एकान्त रूप से कारण में यदि कार्य हो तो सर्वथा कारण के साथ अभेद होने से कार्य की उत्पत्ति नहीं होनी चाहिए । जो अर्थ सब प्रकार से विद्यमान है उसकी उत्पत्ति नहीं होती। कारणभूत अर्थ विद्यमान है वह अपने कालमें उत्पन्न नहीं होती। यदि कारण के कालमें कार्य भी सर्वथा विद्यमान हो तो उसकी उत्पत्ति नहीं होनी चाहिये। यदि विद्यमान होने पर भी उत्पत्ति हो तो सदा कार्य उत्पन्न होता रहना चाहिए । एक बार जब पट उत्पन्न हो, तो उसके अनन्तर सदा पट उत्पन्न होता रहना चाहिए। सर्वथा कारण में कार्य के विद्यमान होने से कारण में कोई व्यापार भी नहीं होना चाहिए । कार्य को उत्पन्न करने के लिए
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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