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________________ प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से विरुद्ध होने के कारण ज्ञानाद्वैत प्रयुक्त है। __ ब्रह्माद्वैत समस्त अर्थों को ब्रह्म रूप स्वीकार करता है। ब्रह्म का अर्थ है आत्मा। समस्त अर्थों को आत्मा जानता है और जानकर व्यवहार करता है । व्यवहार का मूल आत्मा है । आत्मा बाह्य अथों को जानता है इसलिए बाह्य अर्थ विद्यमान सिद्ध होते हैं । जिसका कभी ज्ञान नहीं है उसकी सत्ता नहीं है आकाशपुष्प आदि का कभी ज्ञान नहीं होता इसलिए वे असत् हैं । आत्मा जानता है, इस लिए बाह्य अर्थ की सत्ता सिद्ध होती है, इसलिए ब्रह्माद्वैतवादी कहते हैं, ब्रह्म रूप आत्मा ही सत्य है ब्राह्य अर्थ सत्य नहीं । स्वप्न में आत्मा न होने पर भी बाह्य अर्थों को देखता है और व्यवहार करता है । स्वप्न का समस्त व्यवहार मिथ्या है, फिर भी जब तक स्वप्न रहता है तब तक वह व्यवहार सत्य प्रतीत होता है । स्वप्न को मिथ्या देखकर ब्रह्माद्वैतवादियों ने जागने की दशा के संसार को भी मिथ्या मान लिया, इस प्रकार ब्रह्माद्वैत एकान्त का आश्रय लेता है। प्रमाणों से स्वप्न का और जागने की दशा का भेद सिद्ध है । एकान्त रूप से समस्त अर्थों को स्वप्न के समान मिथ्या कहने के कारण ब्रह्माद्वैत भी संग्रहाभास है। ___ शब्दाद्वैत इन दोनों से भिन्न अद्वैतवाद है । जो भी ज्ञान होता है उसके साथ शब्द का संबंध होता ही है। बिना शब्द के शुद्ध ज्ञान का अनुभव कभी नहीं होता । कोई भी अर्थ हो उसका वाचक शब्द अवश्य होता है। शब्द के बोलने पर अर्थ की प्रतीति होती है। यदि अर्थ न हो तो भी शब्द को सुनकर अर्थ विद्यमान प्रतीत होने लगता है। शब्द के इस सामर्थ्य को लेकर शब्दाद्वैतवादी शब्द को अनादि अनन्त ब्रह्म मान लेते हैं और कहते हैं केवल शब्द सत्य है । वही अनेक प्रकार के अर्थों के रूपमें प्रतीत हो रहा है।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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