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________________ ४५ बिना क्रम के सत्त्व और असत्त्व के कहने की इच्छा हो तो छठा नास्ति अवक्तव्य भङ्ग प्रकट होगा। क्रम और अक्रम की उभय नयोंका आश्रय लेकर विवक्षा की जाय तो अस्ति, नास्ति और अवक्तव्य सातवाँ भङ्ग बन जायगा। इस रीति से संग्रह से विधि और उत्तरवर्ती नयों से निषेध की कल्पना दो मूल भङ्गों को प्रकट करती है। अनन्तर दो मूल भङ्गों के द्वारा पाँच भंग प्रकट हो जाते हैं इस प्रकार समभङ्गी के आश्रय नय है। दूसरा प्रकार आचार्य श्री सिद्धसेन दिवाकर पादका है। इसके अनुसार संग्रह, व्यवहार और ऋजुसूत्र अर्थ नय हैं इन तीन नयों में सप्तभंगी का उद्भव है। सामान्य के प्रकाशक संग्रह में प्रथम भङ्ग है जिसका आकार है स्यात् अस्ति । दूसरा भग है स्यात् नास्ति। यह विशेष के प्रकाशक व्यवहार का आश्रय लेता है। तताय स्यात् अवक्तव्य भङ्ग ऋजुसूत्र पर आश्रित है। स्यात् अस्ति और स्यात नास्ति यह चतुर्थ भङ्ग संग्रह और व्यवहार के द्वारा प्रवृत्त होता है। स्यात् अस्ति स्यात् अवक्तव्य, यह पाँचवाँ भङ्ग संग्रह और ऋजुसूत्र से प्रकट होता है। स्यात् नास्ति स्यात् अवक्तव्य यह छठा भङ्ग व्यवहार और ऋजुसूत्र का आश्रय लेता है । स्यात् अस्ति, स्यात नास्ति, स्यात् अवक्तव्य यह सातवाँ भङ्ग संपह व्यवहार और ऋजुसूत्र का आश्रय लेता है। व्यंजन पर्याय अर्थात् साम्प्रत समभिरूढ और एवंभूत नयके अनुसार सप्तभङ्गी का स्वरूप कुछ भिन्न हो जाता है। इनमें से साम्प्रत का अन्य नाम शब्द भी है। इस शब्द अथवा साम्प्रत नय के द्वारा घट सभी पर्याय शब्दों से वाच्य है। इसलिए घट के वाचक जितने शब्द हैं उनके द्वारा वाच्य रूप से घट कथचित् सत् है यह प्रथम भङ्ग प्रकट होता है । समभिरुढ और एवं भूत नयके अनुसार घटके वाचक जितने पर्याय शब्द हैं उनके द्वारा घट वाच्य नहीं है। अतः इस रूप में घट कचित नहीं है इस प्रकार का द्वितीय
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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