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________________ ४०६ विवेचनाः- यदि घट के सत्ता आदि गुणों का भेद होने पर भी गुणिदेश एक ही हो, तो वृक्ष आदिके सत्त्व आदि गुणों का भी वही एक देश हो जाना चाहिए। मूलम्:- संसर्गस्य च प्रतिसंसर्गिभेदात्, तदभेदे ससर्गिभेदविरोधात् । अर्थ :- (७) संसर्गी के भेद से संसर्ग में भी भेद होता है । संसर्ग में भेद न हो, तो संसर्गियों में भी भेद नहीं हो सकता । विवेचनाः- वृक्ष, जल आदि संसगियों के भेद से संसर्ग में भेद देखा जाता है। इसलिये एक धर्मो में अनेक धर्मो का ससगं मी भिन्न है । यदि संसर्ग में मेद न हो तो धर्मों में भी मेद नहीं रहना चाहिये . मूलम्:- शब्दस्य प्रतिविषयं नानात्वात्, सर्व गुणानामेकशब्दवाच्यनायां सर्वार्थानामेकशब्दवाच्यतापत्तेरिति कालादिभिर्भिन्नात्मनामभेदोपचारः क्रियते । अर्थ :- (८) विषय के भेद से शब्द भी भिन्न हो जाता है, यदि सब गुण एक शब्द के वाच्य हों, तो समस्त अर्थ एक शब्द के वाच्य हो जाँय । इस प्रकार काल आदि के द्वारा भिन्न स्वरूप वाले धर्मों में अभेद का उपचार किया जाता है ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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