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________________ ४२५ मूलम:--तैः क्रियमाणस्योपकारस्य च प्रतिनियतरूपस्यानेकत्वात् , अनेकैरुपकारिभिः क्रियमाणस्योपकारस्यैकस्य विरोधात् । अर्थः-(५) धर्मों के द्वारा किया जानेवाला उपकार भी नियत स्वरूप में होनेके कारण अनेक होता है। अनेक उपकारियों से किया जानेवाला उपकार एक नहीं हो सकता। विवेचनाः- धर्मों को अपने रंग में रंगना धर्मों का उपकार है। इस प्रकार का उपकार धर्मों के द्वारा एक नहीं हो सकता। वंड के कारण पुरुष दंडी कहलाता है । कुडल उस स्वरूप को नहीं बना सकता जो द से बनता है दण्ड और कुडल के समान सस्व और असत्त्व आदि धम मी धर्मी के स्वरूप को एक प्रकार का नहीं बनाते। सत्त्व जिस स्वरूप से अर्थ को ध्यान करता है, असत्त्व उससे भिन्न स्वरूप के द्वारा व्याप्त करता है, अतः पर्याय नय में उपकार से अभेव वृत्ति नहीं हो सकती। मूलम्:-गुणिदेशस्य च प्रतिगुणं भेदात् , तदभेदे भिन्नार्थगुणानामपि गुणिदेशाभेदप्रसङ्गात् । अर्थः-६) प्रत्येक गुण का गुणिदेश भिन्न भिन्न होता है, यदि उसका अभेद हो तो भिन्न भिन्न पदार्थों के गुणों के गुणिदेश को भी अभिन्न मानना पडेगा ।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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