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________________ शब्देनैकधर्मप्रत्यायनमुखेन तदात्मकतामाप. बस्यानेकाशेषरूपस्य वस्तुनः प्रतिपादनसम्भधागोगपद्यम् । ___ अर्थः-जिज्ञासा-क्रम क्या है और यौगपद्य क्या है ? जब काल आदिके द्वारा अस्तित्व आदि धर्मों के भेद की विवक्षा की जाती है तब एक शब्द की अनेक अर्थों के प्रकाशित करने में शक्ति नहीं होती है इसलिये क्रम होता है । जब उन्ही धर्मों का काल आदिके द्वारा अभिन्न स्वरूप कहा जाता है तब एक ही शब्द एक धर्म का प्रकाशन करके एक धर्म के स्वरूप को प्राप्त करनेवाले अन्य समस्त धर्मात्मक अर्थों का प्रतिपादन करता है इसरूप से अनन्त धर्मात्मक वस्तु का प्रतिपादन होनेसे योगपद्य कहा जाता है। विवेचना:-घट आदिमें सत्त्व आदि अनेक धर्म हैं वे परस्पर भिन्न हैं । जब उनके भेद को प्रधानरूप से प्रकाशित करनेकी इच्छा हो, तब क्रम से ही प्रतिपादन हो सकता है। 'अस्ति' पद जब सत्त्व का प्रतिपादन करता है-तब मास्ति पद असत्त्व का प्रतिपादन करता है। केवल अस्ति पद असत्त्व आदि अनेक धर्मों का प्रकाशन नहीं कर सकता। जब एक धर्म का अन्य धर्मों के साथ अभेद मान लिया जाता है तब
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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