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________________ ३९१ असत् सत् का वाचक नहीं होता, अतः एक शब्द एक काल में परस्पर विरोधी भाव और अभाव का वाचक नहीं हो सकता । मूलम्:- स्यादस्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च पञ्चमः । स्यान्नास्त्येव स्यादवक्तव्यमेवेति निषेघकल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्पनया च षष्ठः । स्यादरस्येव स्यान्नास्येव स्यादवक्तव्यमेवेति विधिनिषेध कल्पनया युगपद्विधिनिषेधकल्प नया च सप्तम इति । अर्थ:- सब पदार्थ किसी अपेक्षा से हैं और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य हैं इस प्रकार विधि की विवक्षा से और एक साथ विधि और निषेध की चिवक्षा से पांचवां भङ्ग होता है । किसी अपेक्षा से सब पदार्थ नहीं हैं और कथञ्चित् अवक्तव्य हैं इस प्रकार निषेध की तथा एक काल में विधि-निषेध की विवक्षा से छठा भङ्ग होता है । किसी अपेक्षा से सब पदार्थ है, किसी अपेक्षा से नहीं है और किसी अपेक्षा से अवक्तव्य है इस प्रकार क्रम से विधि-निषेध की और एक साथ विधि निषेध की विवक्षा से सातवां भङ्ग होता है । 1
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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