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________________ ३६० प्रधान होता है वह भी इस विषय में समर्थ नहीं हो सकता। यहाँ पर दोनों धर्मों की प्रधानभाव से विवक्षा है। अव्ययीभाव में पूर्व पद के अर्थ की प्रधानता होती है, अतः वह भी दोनों धर्मों का प्रधानरूप से प्रतिपादन नहीं कर सकता। द्वन्द्व समास में यद्यपि दोनों पद प्रधान होते है, तो भी यहाँ पर द्रव्य का बोधक द्वन्द्व उपयोगी नहीं है। यहां पर दो द्रव्यों का नहीं किन्तु दो धर्मों का प्रतिपादन है। जो द्वन्द्व गुणों का बोधक होता है। वह भी द्रव्य में रहनेवाले गुणों का प्रकाशन करता है । वह दो प्रधान धर्मों का प्रतिपादन नहीं कर सकता। तत्पुरुष समास उत्तर पद के अर्थ का प्रधानरूप से प्रकाशन करता है, इसलिये वह भी दो धर्मों के प्रधानरूप से प्रतिपादन में असमर्थ है। द्विगु समास में पूर्वपद संख्यावाची होता है इसलिये उसका यहां अवसर नहीं है । कर्मधारय समास गुणी द्रव्य को कहता है, इसलिये दो धम प्रधानरूप से उसके विषय नहीं हो सकते। जो समास का अर्थ है वही वाक्य का अर्थ होता है। समास के असमर्थ होनेके कारण वाक्य भी दो प्रधान धर्मों का असाधारण स्वरूप के साथ प्रतिपादन नहीं कर सकता, अतः इस अपेक्षा से अर्थ अवक्तव्य है। सत् और असत् शब्द का प्रयोग समास में अथवा वाक्य में क्रमसे ही हो सकता है। इस दशा में यदि सत शब्द सत्त्व और असत्त्व को एक काल में कहे तो अपने वाच्य अर्थ सत्त्व के समान असत्त्व को भी सतरूप में प्रकाशित करेगा। यदि असत् शब्द सत्त्व और असत्व को एक काल में कहे तो अपने वाच्य अर्थ असत्त्व के समान सत्त्व को भी असत्त्व रूप में प्रकाशित करेगा । वस्तुतः सत् असत् का और
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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