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नहीं हो सकता जब तक एक अर्थ भिन्न अर्थों के अभाव के रूप में प्रतीत न हो । जब तक घट पट आदिके रूप में असत् न प्रतीत हो तब तक घट का यथार्थ रूप से ज्ञान नहीं हो सकता। इसलिये पट आदिके रूप में असत्त्व भी घट का धर्म है। धर्म के साथ धर्मी का भेदाभेद है इसलिये घट असत् स्वरूप भी है। मुख्य रूप से किसी भी अर्थ का असत्त्व पर द्रव्य आदिकी अपेक्षा से प्रतीत होता है । इसलिये दूसरा भङ्ग इसी रीति से असत्व का प्रतिपादन करता है। यहां पर कई लोग आक्षेप करते हैं, असत्त्व मभावरूप है अभाव प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा करता है। घट का ज्ञान न हो तो घट के अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता, परन्तु भाव का ज्ञान प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा नहीं करता घट को घटाभाव के ज्ञान की अपेक्षा नहीं है । जब घट के साथ नेत्र का सम्बन्ध होता है तभी घट का स्वरूप प्रकट हो जाता है घटाभाव के ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती। इन लोगों का आक्षेप युक्त नहीं है । अर्थ का ज्ञान दोनों प्रकार से होता है-अपेक्षा से और अपेक्षा के बिना। अभाव का ज्ञान प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा करता है परन्तु जब अभाव का ज्ञान प्रमेय रूप से होता है तब प्रतियोगी के ज्ञान की अपेक्षा नहीं होती। घट हो अथवा पट, वृक्ष हो वा लता हो, कोई भी हो सभी अर्थ प्रमेय है प्रमेय रूप से ज्ञान का विषय होने के लिये वृक्ष लता की वा लता वक्ष की अपेक्षा महीं करती। प्रमेयत्व सब वस्तुओं का सामान्य धर्म है। मावों के समान अमाव भी ज्ञान के विषय हैं-अतः प्रमेय हैं। प्रमेय रूप से वृक्ष आदि नाव जिस प्रकार किसी प्रतियोगी की अपेक्षा नहीं करते इसी प्रकार अभाव