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भी नहीं है इसलिए वहाँ धर्मी पक्ष नहीं है। पक्ष न होनेके कारण वहां हेतु पक्ष का धर्म नहीं है इस प्रकार सिद्ध साधन पक्षता का विनाश करके अनुमिति का विरोध करता है। इसी लिए यदि साध्य की सिद्धि होने पर भी सिद्ध करने की इच्छा हो जाय तो सिद्धसाधन दोष नहीं रहता।
इस मत के अनुसार भी सिद्ध साधन पक्ष के स्वरूप का विरोधी है, अतः इसको पक्ष दोष ही मानना चाहिये।
मूलम्:-एतेन कालात्ययापदिष्टोऽपि प्रत्यु. क्तो वेदितव्यः।
अर्थः-इस कथन से कालात्ययापदिष्ट नामक हेत्वाभास का भी खंडन समझ लेना चाहिए ।
विवेचना:-हेतु के प्रयोग का जो उचित काल है उसका अतिक्रमण करके जो हेतु कहा जाता है वह काला. त्ययापदिष्ट है। प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से जिसका निराकरण नहीं हुआ वह पक्ष है। उस पक्ष के ग्रहण करने के काल को उल्लंघन करके जिस हेतु का प्रयोग हो वह हेतु प्रमाण से बाधित विषय में प्रवृत्त होनेके कारण कालात्ययापदिष्ट होता है। यहां पर भी साध्य बाधित है, इसलिए पक्ष दोष है हेतु का दोष नहीं है। जहां साध्य के अभाव का निश्चय है वहाँ साध्य की अनुमिति नहीं होती । जहां पर जिस भाव का ज्ञान है वहाँ पर उसी भाव के अभाव का ज्ञान नहीं होता। साध्याभाव की बुद्धि से पक्ष के स्वरूप का विनाश होता है। हेतु में कोई विकार नहीं आता; इसलिये बाप के स्थल में भो पक्ष दोष मानना चाहिये।