________________
३५०
दिगंबर जैन विद्वानों ने दो प्रकार के अकिंचित्कर नामक हेत्वाभास का निरूपण किया है वे भी इसको वास्तव में हेतु का दोष नहीं स्वीकार करते, पक्ष दोष ही मानते हैं । वे कहते हैं शिष्यों की व्युत्पत्ति के लिए अकिचित्कर का हेत्वाभास के रूप में निरूपण है। व्युत्पन्न लोगों के लिए तो इस प्रकार के स्थल में पक्ष दोष ही है। व्युत्पन्न पुरुष का इस रीति से प्रयोग पक्ष दोष से ही दूषित हो जाता है। प्रमेय कमल मार्तण्ड में प्रभाचन्द्राचार्य कहते हैं - लक्षण एवासौ दोषो व्युत्पन्न प्रयोगस्य पक्षदोषेणैव दृष्टत्वात् ॥ ३६ ।।
(प्र. क. मा. ६३६) गौतमीय न्याय के अनुगामी भी सिद्ध साधन को हेत्वा. भासरूप में स्वीकार नहीं करते। उनका कहना है-दो प्रकार से हेतु हेत्वाभास होता है। अनुमिति के करण का विरोधी होनेसे अथवा अनुमिति का विरोधी होनेसे । विरुद्ध और अनेकान्तिक अनुमिति के करण व्याप्ति ज्ञान का विरोध करते हैं इसलिये वे हेत्वाभास हैं । बाध अनुमिति का प्रतिबंधक है इसलिए हेत्वाभास है। सिद्ध साधन न व्याप्ति का विरोधी है न सीधा अनुमिति का-अतः हेत्वाभास नहीं है। जो लोग सिद्ध साधन को अनुमिति की उत्पत्ति में प्रतिबंधक मानते हैं, वे कहते हैं-जिस प्रकार व्याप्ति ज्ञान अनुमिति की उत्पत्ति में कारण है इस प्रकार पक्षधर्मता का ज्ञान भी कारण है। हेतु पक्ष में रहना चाहिये । पक्ष वह होता है जिसमें साध्य धर्म असिद्ध हो और उसके सिद्ध करने की इच्छा हो । जब किसी प्रमाण से साध्य की सिद्धि हो जाती है तो उसको सिद्ध करने की इच्छा नहीं उत्पन्न होती। साध्य धर्म सिद्ध है और उसके सिद्ध करने की इच्छा