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________________ ३२९ किसी वक्ता को हेतु के स्वरूप का ज्ञान नहीं होता । किसीको हेतु के स्वरूप में सन्देह होता है और किसीको हेतु के स्वरूप में भ्रम होता है । मलम् - स द्विविधः - उभयासिडोऽन्यतरासिद्धश्च | आयो यथा शब्दः परिणामी चाक्षुषस्वादिति । द्वितीयो यथा अचेतनास्तर वः, विज्ञानेन्द्रियायुर्निरोधलक्षणमरणरहितत्वात्, अचेतनाः सुखादयः उत्पत्तिमत्त्वादिति वा । अर्थ :- वह दो प्रकार का है ( १ ) उभयासिद्ध (२) अन्यतरासिद्ध | प्रथम- जैसे शब्द परिणामी है, चक्षु के | द्वारा प्रत्यक्ष होनेसे । दूसरा - जैसे वृक्ष अचेतन हैं, विज्ञान इन्द्रिय और आयु के निरोधरूप मरण से रहित होनेसे । अथवा सुख आदि अचेतन हैं, उत्पत्तिवाला होनेसे । विवेचना - वादी और प्रतिवादी दोनों जिस हेतु को धर्मी में विद्यमान नहीं मानते, वह हेतु उभयासिद्ध है । शब्द को परिणामी सिद्ध करने के लिये जब चाक्षुषत्व - हेतु के रूप में कहा जाता है, तब वह उमयासिद्ध होता है। वादी और प्रतिवादी में से कोई भी शब्द को चक्षु द्वारा प्रत्यक्ष नहीं मानता दोनों कान के द्वारा उसका प्रत्यक्ष स्वीकार करते हैं।
SR No.022395
Book TitleJain Tark Bhasha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorIshwarchandra Sharma, Ratnabhushanvijay, Hembhushanvijay
PublisherGirish H Bhansali
Publication Year
Total Pages598
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size30 MB
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